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________________ नल दत्तोऽत्र वसत्येव गुणालयः ॥ २२६ ॥ तस्यास्ति भामिनीयुग्मं रैमित्रायां सुतोऽजनि । कदाफाले मृतः श्रेष्ठी तयोर्जातोऽतिविड्वरः ॥२२७॥(२२८)अछिदचा वदत्येवं पुत्रोऽयं मामको भृशं । यसुमित्रा तथाऽवादीत् खलेयं मामकः सुतः ॥२२६॥ वियदत्यौ तदा ते द्वेगते श्रेणिकसन्निधौ । न्यायं कर्तमशनत्याउभयाय समर्पिते ॥ २३०॥ अमयोऽपि चिरं ध्यात्वा शिशु भूमौ निक्षिप्तवान् । स नीत्वाछुरिका IN/ माह वर्धमधं प्रगृह्यतां ॥ २३१ ॥ वसुमित्रा तथा दृष्ट्या दयाः समुवाच तं । एतस्मे देहि पुर्ष भो न मे पुत्रः कदाचन ॥ २३२ ॥ राजगृह नगरमें उससमय एक सागरदत्त नामका वैश्य रहता था । अत्यंत धनाढ्य और अनेक गुणोंका मंदिर था, उसकी दो स्त्रियां थीं, एक वसुमित्रा और दूसरी अछिदत्ता ( वसुदत्ता) उनमें वसुमित्राके एक पुत्र. श वसुदत्ताके कोई संतान न थी। किसी समय सेठ सागरदत्तका मरण हो La गया और उससमय उन दोनों स्त्रियोंमें रात दिन कलह होने लगी। वसुदत्ताका कहना था कि यह पुत्र मेरा है और वसुमित्रा यह कहती थी कि यह झटी है। यह पुत्र मेरा है । जब दोनोंका विवाद | इतना बढ़ गया कि वे आपसमें अपना निवटेरा न कर सकी तो वे महाराज श्रेणिकके समीप | राजसभामें अपना न्याय करानेके लिये गई । उनका विवाद सुन महाराज श्रेणिक भी अवाक रह गये--कुछ भी न्याय न कर सके इसलिये कुमार अभयको बुलाकर उन्हें न्याय करनेकी आज्ञा दं दी ।। २२५–२३०॥ अभयकुमार भी बहुत देर तक तो यह विचार करते रहे कि इसका निवटेरा किस प्रकार किया जाय अंतमें उन्हें एक बुद्धि सूझ गई । वालकको शीघ्र ही उन्होंने जमीनपर लिटालिया एवं हाथमें छुरी लेकर वे यह कहने लगे कि अच्छा भाई ! जब तुम दोनों ही इसे अपना अपना पुत्र बतलाती हो तो आधा आधा दोनों ले लो ॥ २३१॥ कुमारका यह न्याय देख पुत्रकी | असली माता वसुमित्रा एकदम कप गई एवं दयासे आई हो वह इसप्रकार नम्र वचनोंमें कहने | लगी--कुमार ! कृपाकर यह पुत्र वसुदत्ताको ही प्रदान करिये मेरे पुत्र कभी भी नहीं हुआ इस लिये मेरा पुत्र यह नहीं ॥ २३२ ॥ वसुदत्ताके अंदर किसी प्रकार दयाकी झलक न थी। कुमारने ЖАККА ЖЕКҰЖҮЖҮККЖЕ प्रकश्यपkrabY
SR No.090538
Book TitleVimalnath Puran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size14 MB
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