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お寿局造者
शुभे ॥ २८ ॥ जगरामास सद्ध्यानलीना ललितलक्षणा । उत्थिता सल्पतो नूनं स्नात्वा सामायिकं व्यधात् ॥ २६ ॥ प्रातर्यादित्रनिर्घोष दिनां शुभसूचनैः । रंजिता गतवती भतुः समीपे प्रश्नहेतवे ॥ ३० ॥ शृंगारितलसदेहा स्थूलपीनपयोधरा । नांगी तप्तवर्णाभ पपातयोः पतेव ॥ ३१ ॥ तां चकोर दृष्ट्वा जगादेति विशांपतिः । प्रमाकृतो महादेवि ! यत्र त्वं समागता ॥ ३२ ॥ इत्यु कत्वावामके भागे स्थापयामास सादरात् । स्त्रकरेण समादाय जयश्यामां व कोविदां ॥ ३३ ॥ सापि भर्तुः परं मानं लब्ध्वा सुख
देख चुकी उस समय सबसे अंत में अपने मुखमें प्रवेश करता हुआ हाथी देखा जो कि सफेट रंगा और पर्वत समान उन्नत था ॥ २८ ॥ समीचीन ध्यानमें लीन एवं सुन्दर लक्षणों की धारण करने वाली वह माता जग गई । शीघ्र ही उसने शैय्या छोड़ दी एवं स्नानकर सामायिक करने बैठ गई। महाराज और महाराणीके जगानेके लिये प्रातःकाल में महा मनोहर बाजों के शब्द होते हैं एवं बंदीगण विरुद बखानते हैं। महारासीके जगते समय भी उत्तमोत्तम वाजोंके शब्द होने लगे एवं 'दीगण विरुद बखानने लगे इसलिये वह माता अत्यंत प्रसन्न थी । सामायिकके अंत में वह माता उठी और अपने स्वप्नोंका फल पूछने के लिये प्रसन्नचित्त हो अपने स्वामीके पास चल दी ॥ २६- ३० ॥ जिससमय माता जयश्यामा राजा कृतवमांके पास चली उससमय उसका सारा शरीर अनेक प्रकारके श्रृंगारोंसे देदीप्यमान था उसके कठिन और पीन दोनों स्तन विचित्र शोभा बढ़ा रहे थे । उसके शरीरसे तपे हुये सुबर्णको कांति फुट रही थी एवं उसका अंग नस्त्रीभृत था बस सभा में पहुंचते ही वह अपने स्वामीके चरण कमलोंमें जाकर गिर गई । अपनी महाराणी को इसप्रकार पूर्ण विनययुक्त देखकर राजा कृतवर्माको बड़ा आनंद हुआ एवं हर्षसे गदगद हो वह इसप्रकार अपना स्नेह व्यक्त करने लगा :
हे महादेवि ! आप जो यहां पर पधारो हैं उससे मैं अत्यंत आभारी हूँ बस ऐसा कहकर आधा सिंहासन छोड़ दिया एवं अपने हाथसे माता जयश्यामाका हाथ पकड़कर उसे अपनी चई और बड़े आदर से बैठा लिया ॥ ३१-- ३३ ॥ माता जयश्यामा भी अपने स्वामी राजा कृतवर्मा से