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यथा ये रोचते तुभ्यं कर्तव्यं च तथा त्वया ॥ २०२ ॥ श्रुत्वा स्थितो महाराजा श्रेणिकः कोपमानसः । भूमिमानां गतिर्नास्ति त गंतु तो ॥ २०३ ॥ तदा विप्रपन्नः स तूष्णीभावमुपागतः । जंबूर्नत्वा गतस्तेन सार्धं विद्याधरेण वे ॥ २०४ ॥ गवा व्याजी स ेन रत्नसून पापिना | साहसिकान् पार्थस्तस्यामीमरदुत्कटान् ॥ २०५ ॥ बधयित्वा द्विपं दुष्टं मृगांकण समं सुखं । कृत्वा कन्यां समादाय याचेदायाति तेः सह ॥ २०६ ॥ तावद्राजगृहाधीशं विध्याटव्यां हि केरले । पर्वते संस्थितं मत्वा तेननाम महायशाः ॥ २०७ ॥ उपयस्य तयो विधारा त्रिशपति दिपक तथा साकं सुख ं स्थितः ॥ २०८ ॥ समाचार कहने के लिये आपके पास आया हू' अथ जैसा आप उचित समझें शीघ्र करें ॥ १६८ - २०२॥ विद्याधर आकाशगतिकी यह बात सुन महाराज श्रेणिक बड़े कुपित हुए परंतु " वहां पर भूमि गोरियों की गति नहीं इसलिये जा नहीं सकते” ऐसा विचारकर वे सचिंत हो चुप रह गये महाराजको इसप्रकार सचिंत देख एक जंबूकुमार नामके व्यक्तिने महाराजको नमस्कार किया और वह विद्याधर आकाशगतिके साथ शीघ्र केरला नगरीको चल दिया ॥२०३ – २०४ || केरला नगरी में जाकर पापी रत्नचूड़के साथ उसने झगड़ा करना प्रारंभ कर दिया । उसके महा उत्कट आठ हजार योधाओं को मार भगाया। दुष्ट रत्नचूड़की बांध लिया। उसे, मृगांकको और उसकी कन्याको साथ ले राजगृह नगरकी ओर चल दिया । जिससमय जंबूकुमार केरला नगरीकी ओर गया था महाराज श्रेणिकने भी अपने जानेकी तयारी कर ली थी और वे चलते चलते विंध्याचलकी बनी में केरल नामके पवतपर जाकर ठहर गये थे । यशस्वी जंबूकुमार सर्वोको साथ ले जिस समय विंध्याचल पर्वतके पास आया उसे मालूम पड़ गया कि महाराज श्रेणिक यहीं ठहरें हैं। वह | शीघ्र उनके पास गया और उन्हें नमस्कार किया । कन्या विलासवतीके साथ महाराज श्रेणिकका विवाह हो गया । मृगांक आदिके साथ उन्होंने बहुत स्नेह जनया । वहांसे अपनी राजधानी राजगृह नगर लौट आये और रमणी विलासवती के साथ सुखपूर्वक रहने लगे ॥ २०५ - २०८ ॥
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