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पानरो राजसत्सखा ॥ २१६॥ हए या मित्र गज दष्टं तेनाहि नरेण सः।इतोऽगात्ततीये श्वन्ने कुफुट: पापमाजमं ॥ २१७ । अन्त मुहूर्तमात्रेण सुपादशिलातलात। समुत्थाय लुलोकासौ चिरं स्वाधियं सः ॥२१८॥ कौतस्कुल पसरपंनिर्षिमानाश्च कुशस्तसं
भुकडागलीवालि श्यते शयरी नु वा । २१६ ।। देचं भ्रांतिगतं दृष्ट्वा समूचस्तं सुरांगनाः । भो भो नाय! बयरममाः समस्तवेद सुप पितः ।। २२० ।। भावतोऽयं सुरावासो यवनत्यं तवैव तत् । अतः कि तर्फयश्चित्ते मागास्स्व भ्रांतिमन्दिरं ॥ २२१ शु त्या देवांगना वायं स दध्याविति चासि । अम्र कृतं पुण्यं यद वागतोऽस्म्यहे ॥ २२२ ॥ एवं चितयनस्तस्य प्रादुरासोत्सृतीयस्क । तदेष ! क्रोधके उसका हृदय पजल गया। उसने अपने मित्रका बदला लेनेके लिये उस कुकुट सर्पको मार ला डाला जिससे वह पापी मर कर तीसरे नरकमें गया एवं राजा सिंहसेनका जोव श्रीधर देव अचरज | भरी दृष्टिसे स्वर्गको लक्ष्मीको देखकर मनही मन यह विचारने लगा
कहांसे तो ये देवांगनाओंकी कतार आई। कहांसे ये विमान आये और अपनी ऊंचाईसे आकारको स्पर्शनेवाले ये बड़े २ महल कहांसे आये ? यह इन्द्रजालका खेल तो नहीं है। देव श्री धर को स्वर्गकी विभतिसे इसप्रकार आश्चर्यमय देखकर उसकी नियोगिनी देवियोंने कहा| प्राणनाथ ! हम जो देवांगना दीख रहीं हैं वे आपकी ही स्त्रियां हैं। यह महल आपका ही है तथा और भी जो चीजें आप देख रहे हैं सब आपकी ही हैं। आप यहांकी विभूति देख कर जो आश्चर्य कर रहे हैं वह व्यर्थ है। आपको इसविभ तिको देखकर किसी प्रकारका भ्रम नहीं करना चाहिये ॥ २१७-२२१ ॥ देवांगनाओंके इसप्रकार वचन सुन देव श्रीधरको बड़ा आश्चर्य हुमा एवं वह अपने मनमें इसप्रकार विचार करने लगा___मैंने ऐसा कौनसा ठोस पुण्य किया था जिसके कारण मैं यहां न्याकर उत्पन्न हुआ हूँ! 4 उसीसमय उसके अवधिज्ञान उदिल होगया एवं उसके द्वारा उसने समझ लिया कि मैं जो हाथी
था वह कीचड़में फस जाने के कारण मरकर देव हुआ हूँ॥ २२२-२२३ ॥ बस वह अपने मनमें
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