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________________ यं चेति सादरात् । आनय त्वं द्रुतं बंधी ! मातृपितादिसत्कुलं ॥ ८४ ॥ मन्त्रिवाक्यात्तदा तुष्टः सप्तरत्नानि तत्करे । स्थापयित्वा गतः ॥ ८५ ॥ मातर पितर बन्धून पशूंश्चापि धनादिकं । मीतया समागतो भद्रमित्रः सिंहपुरे जात् ॥ ८६ ॥ सत्य घोष' समेत्याशु ययाचे रत्नसप्तकं । तदा क्रोधारुणो भूत्या प्रोवावेति घणिसुतं ॥ ८७ ॥ रे रे दुर्गत ! रत्नानि कदाऽदायिपत त्वया मस्ते हि पापीयान् नाशोऽय भविता तब ॥ ८८ ॥ भद्रमिलस्तदा प्राइ द्वीपे रत्नादिना ननि । गत्वा रत्नानि चानीय त्वत्करे स्थापि तामि भो ॥ ८१ ॥ तदा तत्सेपका भेर्वेषां याति धनं महत् । तदव प्रथिला नूनं भवेयुश्चितमत्र किं ॥ ६० ॥ अवन्द्र तश याणं मित्र के पास उस समय सात रत्न बहुमूल्य के थे। कुमारने उन्हें मन्त्री सत्यघोषको सौंप दिया और वह अपनी जन्मभूमि पद्मखण्ड नगरमें शीघ्र ही आगया । पद्मखण्ड नगर में खाकर भद्रमित्रने माता पिता : भाई पशुगण और धन आदिक सबको साथ ले लिया और शीघ्र ही सिंहपुर में आगया । ८१ - ८६ ॥ सिंहपुर में आकर कुमार भद्रमित्र मन्त्री सत्यघोष से मिला और जो सात रत्न उसे सोंपकर गया था वे उससे मांगे । बहुमूल्य सात रत्नों के मिलने से मन्त्री सत्यघोषकी नीयति पहिले ही से गिड़ चुकी थी । जिस समय कुमारने सात रत्न मागे मारे क्रोधसे उसके नेत्र लाल हो गये एवं अनेक प्रकारकी ताड़ना करता हुआ वह भद्रमित्रको इसप्रकार दुर्वाक्य कहने लगा--- रे दरिद्री ! तू महापापी है। कह तो तूने मेरे हाथमें कव रत्न दिये थे ! याद रख इस प्रकार झूठ बोलने से तेरा काल तेरे शिरपर मडरा रहा है ॥ ८१-८८ ॥ उत्तर में भद्रमित्रने कहारत्नद्वीपमें जाकर में रत्न लाया था वे रत्न मैंने तुम्हें सोंपे थे तुम क्यों भूल रहे हो !! सत्यघोष और भद्रमित्रका यह आपसी झगड़ा देख सत्यघोष के सेवक कहने लगे- जिन मनुष्यांका त्रिपुल धन चला जाता है बे ही संसार में पागल सरीखे हो जाते हैं इसमें किसी वातका आश्चर्य नहीं । ॥ ८६ - ६० ॥ परदेशी भद्रमित्रकी दुष्ट मंत्रीने एक बात भी न सुनी। वुद्धिमान कुमार भद्रमित्रके AKAKAKABRER
SR No.090538
Book TitleVimalnath Puran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size14 MB
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