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________________ .ARKarkTRYKTETTERPRय नाममः ॥२२॥ लाभाषाम्बी पेन रोध्येतेसम्बरोहिसावतधर्मादिवान् जीव कसो नयति सत्पदं ।। १३३॥ द्वौ भेदी निजे रायाः स्तः सपिपाकोऽषिपाककः। मुनीनामविपाकः स्यादन्यश्य सर्षदेहिनां ।। २३४ ॥ अनादिनिधनो लोक पद्व्यादिचितो महान् केनाकारि न मूर्यो ननराकारमल दधत् ।। २३५ ॥ वित्यते ध्यानसिद्धयर्थ योगिना लोकसंस्थितिः । स्थैर्य यतो मनो याति तस्मिन्नेव 2 के द्वारा होती है इस लिये ब्रत और धर्म आदिका करनेवाला जीव मोक्ष प्राप्त कर लेता है ॥२३२॥ इस प्रकार दोनों प्रकारके पात्रकका रुक जाना संवर कहा जाता है और संवर तत्वका चिंतवन संबरानुप्रेक्षा कही जाती है। सविपाक निर्जरा और अविपाक निर्जराके भेदसे निर्जराके दो भेद माने हैं। स्थितिके पूरे होनेपर प्रति समय कमौका खिरता रहना सविषाक निर्जरा है और तप आदिके द्वारा जवरन कोका खिपा देना अविपाक निजरा है। वतियोंके अविपाक निर्जरा होती। है क्योंकि वे तप आदिके द्वारा जवरन कर्म खिपाते हैं और अन्य सवोंके सविपाक निर्जरा होती है ॥ २३३ ॥ इस प्रकार एक देश रूपसे कर्मोंका खिपना निर्जरा है । यह समस्त लोक अनादि । निधन है न इसकी आदि है और न इसका अन्त है। यह जीव अजीव आदि द्रव्य स्वरूप है। Kा विशाल है। किसीके द्वारा बनाया हुआ नहीं हैं तथा यह उन्नत पुरुषाकार हैं ॥ २३४ ॥ ध्यानकी | सिद्धिके लिये योगी लोग लोकके आकारका चिंतवन करते हैं क्योंकि मनके स्थिर करनेसे ध्यान हो सकता है तथा लोकका आकार चिन्तवन करनेसे मन स्थिर होता हैं और मनकी स्थिरतासे परम पद मोक्ष पदकी प्राप्ति होती हैं ॥ २३५ ॥ इस प्रकार लोकके स्वरूपका चिन्तवन करना लोकानुप्रेक्षा हैं। समस्त पदार्थोके प्रकाश करनेवाले सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति संसारमें बड़ी कठिन है क्योंकि इस सम्यग्ज्ञानके द्वारा जीवोंको आत्मरूपी तेजका स्पष्ट रूपसे ज्ञान हो जाता हैं । तथा वह सम्यग्ज्ञान कर्मरूपी बृक्षके लिये फरसा है। मनरूपी पर्वतके भेदनेमें वजू है और अज्ञानरूपी JHIYANAYAYAYAYAYAYAYA
SR No.090538
Book TitleVimalnath Puran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size14 MB
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