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________________ RRENTLYYYssy जगत्सर्व मिस्य जानीहि वस्तुतः ।। २२७ ॥ जीवोऽयं नित्य एवास्ति सिद्धोद्धो निरंजनः । मच्छरोऽनाविचिद्र पो ध्येयो नि इसा मितः ॥ २२८ ।। भिग्नोऽयं पुद्गलः ख्यातो जीवाज्जीवोऽपि तन्मनः । अतोऽस्मिन् मित्रता फैव कर्मरूपे घिनश्वरे ॥ २२६ ॥ सप्तधातु भयो देहो विषमूत्रनिचितोऽशुचिः। अस्थिसन्तानसंघद्धो रोमोरगपद शठः ॥ २३ ॥ चर्मातः कदय व दुर्गधे चूरितो धन ध्यान' मुफ्त्वा फेनार्य पोप्यते कर्मभाजनं ॥ २३१ ।। मिथ्यात्याविरतिलासः कपाविषयादिभिः । फर्मानपति यशेन मिरयं याति Hd जानेवाला न होनेके कारण पछेद्य हैं। अनादि है। चैतन्य स्वरूप है। ध्यान करने योग्य है और समस्त प्रकारके द्वन्द्वोंसे रहित निन्द्र है ॥ २२७ ॥ इस प्रकार यह जीब अकेला ही है। पुत्र स्त्री श्रादि इसका कोई भी नहीं। जीवसे यह पुद्गल भिन्न है। पुदगलसे जीव भिन्न है मन भी जीव से भिन्न है इसलिये विनाशीक कर्मके साथ अविनाशीक जीवकी कोई भी मित्रता नहीं है ॥२२८॥ इस प्रकार यह जीव कर्मसे अन्य हैं। यह देह मेद मज्जा आदि सप्त धातु स्वरूप है। विष्टा और IS. मूत्रसे व्याप्त है । अपवित्र हैं। हड्डियोंसे व्याप्त है। रोग रूपी सोका विल है और अनेक प्रकार | से पोषा जानेपर भी नष्ट ही होता चला जाता है इसलिये कृतनी है ॥ २२६ ॥ यह शरीर चारों .ओरसे चामसे वेष्टित है। महानिन्ध दुर्गन्धिका खजाना है इसलिये कोंके कारण इस शरीरका IS विद्वान लोग ध्यानके किये ही पोषण करते हैं विषय भोगके लिये नहीं ॥ २३० ॥ इस प्रकार यह 5. शरीर अपवित्र है। मिथ्यात्व अविरति त्रास प्रमाद कषाय और विषय आदिके द्वारा इस जीवके । सदा कमौका आस्रव होता रहता है उससे यह जीव नरकमें जाकर अनेक प्रकारके दुःख भोगता | रहता है ॥२३१ ॥ इस प्रकार इस जीबके मिथ्यात्व आदिके द्वारा सदा कर्मोंका प्रास्रव होता kd रहता है। आस्रवके दो भेद माने हैं एक द्रव्यास्रव दूसरा भावात्रव। जिसके द्वारा दोनों प्रकार के.कर्मों का निरोध हो वह संवर कहा जाता है इस संवर तत्वकी प्राप्ति गुप्ति समिति धर्म व्रत आदिल KKRNarayeck
SR No.090538
Book TitleVimalnath Puran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size14 MB
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