________________
मल ७५
PAPAYAYAYA
अणात्पुण्यराशीनामानं त्यात्पलेशतः । कियति ग्लाचि संपूर्ण लक्ष्मलेश इवागमाः ॥ १५० ॥ अहो चित्रमानुलेशा चुद्गीर्णविकस्वर कुसुमचयहरित रुतंड मंडितं चन किं न प्रोत इत्याशंक्याहुर्निंगमाः ।। १५१ ।।
किशलयागणास्ता नित्याहु:
बावह्निना नूनं प्रौढजालेन धारिधिः | लोलत्फल्लोलगंभीरोऽपीति न कदा श्रुतं ॥ १५२ ॥ तथा स्वल्पाहसा पुण्यवारिधिनैव लभ्यते । अंतरंगविधिः प्रायो बहिरंगाइली मतः ॥ १५३ ॥ को गार्हस्थ्ययियोरपनाहः प्रण भगवत्पदाम्भोजाश्रयतः स्यात् । धर्मास्पदे यदकार्यस्तत्सल वज्रवज्रायते तदव्यपोहनं दुष्करमित्याश' मयाहुर्निगमा:
करनेवाली जलकी धारासे भगवान जिनेंद्र की पूजा करना अनुचित है ? उत्तर, बड़वानल जातिकी अग्नि बड़ी प्रौढ़ और तीव्र होती है और वह समुद्र में उत्पन्न होती है ऐसी कवि समय प्रख्याति है वह तीन अग्नि भी समुद्रकी रंचमात्र भी हानि नहीं करती उसके विद्यमान रहते भी कक भकाती हुई तरंगों से सदा गम्भीर बना रहता है उसीप्रकार जलकी धारा से भगवान जिनेंद्र की पूजा किये जाने पर पुण्यका तो अधिक संचय होता है और पापका उपार्जन बहुत थोड़ा होता है इसलिये वह थोड़ासा पाप विशाल पुण्यरूपी समुद्रको लांघ नहीं सकता यह न्याय भी है कि अन्तरङ्गविधिसे बहिरङ्ग विधि बलवान होती है । पुण्य अन्तरङ्ग विधि है और पाप बहिरंग विधि हैं बहिरंग विभि स्वरूप पाप अन्तरन विधि स्वरूप पुण्यको बाधा नहीं पहुंचा सकता इसलिये जलकी धारा से भगवान जिनेंद्रकी प्रजाका निषेध नहीं किया जा सकता। फिर भी शंका
गृहस्थाश्रम के कार्यों करनेसे जो पाप उत्पन्न होगा उसका विनाश भगवान जिनेंद्रके चरण कमलों की सेवासे हो सकता है परन्तु धर्मके स्थान में जो पातक किया जायगा वह वज्रसे भी safe कठिन होगा उसका नाश न हो सकेगा इसलिये जल धारासे पूजन करनेपर जो भी पाप उत्पन्न होगा वह भी मिल नहीं सकता इसलिये जलकी धारासे पूजा नहीं करनी चाहिये ? उत्तर,
परधानतय
AAPK