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१५६ ॥ तन माधधनामाभूत श्रेष्ठी भूरिधनान्वितः । षभूवुः सप्त तत्पुवा रूपधन्तो विदावराः ॥१४॥ एकदा गल्छतस्तस्य प्राकृषि श्री. ष्टिनो महत् । निधान रत्नसंपूर्ण लब्ध देवोदयादयात् ॥१४८॥ नीत्वा निशि सुतैः साकमाससंज धरातले। सुखीभूयमितः
लापुर'वरः ॥ १४९ । पकवारिजयो पृयपुत्रश्वेति व्यचिंतयत । च्यापन्ने श्रेष्ठिना तस्य भविता मागसप्तकं १५०॥ विचिंतेत्थं व निष्कास्प निधानं तेन पापिना । चिक्षेपन्यत्र भूभागे धिम् लोभं दुर्गतिप्रद ॥ १५१ ॥ दिनेण्यत्सु फीयत्सु श्रेष्ठी खजानेको जमीनमें खुदवाकर रखवा दिया एवं इन्द्रके समान सुख भोगता हुआ वह सुखसे रहने लगा॥१४५–१४६॥ ____ माधवके सबसे बड़े पुत्र का नाम अरिंजय था। एक दिन उसने अपने मनमें विचार किया कि पिताके मर जानेपर धनके सात भाग होंगे और उसमें से मुझे सातवां भाग मिलेगा। वस ऐसा विचारकर उस पापीने जमीनसे भरे खजानेको निकाला और अन्यत्र जाकर गाड़ दिया। हा ! इस लोभके लिये धिक्कार है क्योंकि यह दुर्गतिमें लेजानेवाला है ॥ १५०-१५१ ॥ थोड़े दिन वीत जानेपर सेठ माधवने अपना रत्नभरा खजाना देखा जब उसने वहां उसे न पाया तो उसे सीमांत
दुःख हुआ एवं उस तीव्र दुःखसे उसे मूर्छा आगई। जमीनपर गिरकर मर गया एवं मोह कर्मके उदय d से मर कर वह उसी खजानेपर सर्प होगया । एक दिन सेठपुत्र अरिंजय धन लेनेके लिये खजानेमें
गया जहांपर वह खजाना गड़ा था धीरे धीरे वहांकी उसने पृथ्वो खोदना प्रारंभ कर दो । सर्पने
ज्योंही अरिंजयको देखा उसे डस खाया। जिससे वह विषसे मूर्छित हो जमीनपर गिरकर मर hd गया। सर्पकी यह चेष्टा देख अरिंजयको भी क्रोध आगया था उसने भी सर्पके दो टुकड़े कर दिये इस रूपसे बे दोनों उसी समय मृत्युको प्राप्त होगये।
इसी भरत क्षेत्रकी उत्तर दिशामें एक मथुरा नामकी नगरी है । उसमें एक बणिक रहता था
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