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हमल
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स्मृत्वा पञ्चनमस्कियां | मृत्वा काले बभूवायं तव पुत्रः सुकोशलः || १४७ || अस्मिन् भवे तपस्तप्त्वा मुक्ति' यास्यति भूपते !! नृपोऽपि तद्वचः श्रुत्वा पय धामविरक्तधीः || १४८ ॥ निअं राज्य तुजे सस्ते दरवासौ हरिवाइनः पिहितास्रवमादाय दीक्षां दैगम्बरीमितः ॥ १४६ || तद्वरत्वं समालोक्य शत राज्ञां च धीमतां । प्राप्राजोतिशत्रूणां धीराणां चेष्टित ं ह्यदः ॥ २५० ॥ राजा सुकोशलो राज्य' चर्क रीत्यध नोदनात् । सचिवस्य श्रुताभ्यासी नीरागी १५९ प्रकः देहजः सुधीः । श्रुतसागर खिपाने के लिये यह अवश्य करना चाहिये । तुंगभद्राने मुनिराज के बचन प्रमाणीक मान लिये और वह व्रत लेकर अपने घर चली आई। जब तक वह जीती रही विधि पूर्वक उस व्रत आच र उसने किया आयुके अंत समय में पंचपरमेष्ठिका स्मरण कर उसने अपने प्राणोंका परित्याग किया वही तुरंगभद्राका जीब यह कुमार सुकोशल हुआ है ॥ १३८-- १४७ ॥ राजन् ! यह कुमार कोशल सीपको तपकर नियमसे इसी भवसे मोच जायगा । इस बात में किसी प्रकारका संदेह मत समझो। मुनिराज के मुखसे इस प्रकार सुकोशल कुमारका पूर्व भव सुनकर राजा हरिवाहनको संसार शरीर भोगों से वैराग्य होगया । वह मुनिराजके पाससे सीधा राज महल लौट आया । अपने पुत्र सुकोशलको राज्य प्रदान किया एवं मुनिराज पिहितास्रत्र के चरणोंमें दिगम्बर दीक्षा से दीक्षित होगया ॥ १४८ - १४६ ॥ राजा हरिवाहनको इसप्रकार धीर वीरता देख सौ राजा उसके साथ और भी दीक्षित होगये। ठीक ही है शत्रुओं पर सदा विजय पाने वाले धीर वीर पुरुषोंकी ऐसी ही चेष्टा हुआ करती हैं ॥ १५० ॥ कुमार सुकोशल अपने पिता के मुनि हो जानेपर यद्यपि राजा बन गये परन्तु परिणामोंमें वैराग्य रहनेके कारण उनका वित्त राजकी ओर कम
कता था तथापि वे मंत्री की प्रेरणा से वरावर राज्यका कार्य सम्हालते थे किन्तु उनका शास्त्रों का अभ्यास सदा चलता रहता था । और स्त्रियोंके अन्दर उनकी सदा अनिच्छा रहती थी ॥ १५१ ॥