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________________ asaपापा Tat भवान् ।। ७२ | सन्निशम्य तदा थोचमिचिवस्त भयारवैः कोऽसि त्वं हि वेगेन चान्यथा इन्मि चक्रतः ॥७॥ धुत्वा तन्निष्ठ गं पाचं ततकात स्वागनस । चित्राख्यो भौतचित्तः सन् प्रतिकूलजिधांसया ॥४॥ विश्वस्तो दुर्जनो नन इंति दंत हठोन्नर । अतो यावश्यं शनशिपत्तावदहं म ।। ७५ | विचार्येत्यै मुमोचाशु शिलीमुखमहो कुधा । विचित्रण तथा ध्यात्वा वायचक्र दुनोद है ॥ ७६ ॥ इषणा दये मिन्नो पिचित्रो मृतलेऽपतत् । चक्रण युगपश्चित्रो द्वाचेतौ निधन' गतौ ॥ ७७॥ अतो मतों निशामागेऽन्यात्मा लोकधिवेकता ! जायते नास्यते जातु शास्त्र' पुरसा भवादशा ॥ ७८ । निशीथे गमनं चापि न विधीयेत धीधनः। येनानिष्टसमु. मारनेकी इच्छासे उसने यह विचार किया। यदि दुर्जन पर विश्वास कर लिया जाता है तो वह नियKalमसे पुरुषको मार डालता है मुझे भी इसकी बातपर विश्वास नहीं करना चाहिये इसलिये जब तक यह शस्त्र मेरे ऊपर न छोड़े उसके पहले ही मुझे इस पर शस्त्र छोड़ देना चाहिये यस ऐसा विचार | चित्रने शीघ्र ही विचित्र पर वाण छोड़ दिया। विचित्र भी उधर क्रोधायमान था जब चित्रसे ke उसने कोई जबाव नहीं पाया तो उसने चित्र के समान अपने मनमें दृढ़ विचार कर चित्रपर चक्र छोड़ दिया ॥ ७५-७७ ॥ देखो कर्मोंकी विचित्रता उसी समय चित्रके बाणसे विद्ध होकर तो विचित्र गिरकर मर गया और उसी समय विचित्रके चकसे कटकर चित्र जमीन पर गिरकर मर गया इस प्रकार द्वोनों ही मृत्युके कवल बन गये ॥ ७८ ॥ यह कथा सुनाकर विद्युन्मालीकी स्त्रीने अपने स्वामी विद्याधरसे कहाSI इसीलिये में कहती हूं कि रात्रिके गाद अन्धकारमें दूसरे मनुष्यका ज्ञान तो होता नहीं इस. लिये तुम्हारे सरीखे बुद्धिमान पुरुषको बिना विचारे रात्रिके समय शस्त्र न छोड़ना चाहिये ॥ ७ ॥ तथा जो पुरुष बुद्धिमान हैं उन्हें रात्रिमें गमन भी नहीं करना चाहिये क्योंकि रत्रिमें गमन करने से अनेक प्रकारके अनिष्टोंका सामना करना पड़ता है तथा जिसमें अनिष्ट जान पड़ते हैं बुद्धि. 长长长长长然后把整版影空余条后卷 R
SR No.090538
Book TitleVimalnath Puran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size14 MB
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