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________________ YREYA सति द्रव्ये ददाति नो चेददाति विचिंतयेत् । किं कृतं हि भया वेत्थ जानता बालबुद्धिना ॥ १७॥ ददतो पारयत्येव परेषां रतिनाशकत् । निभोंगः स दरिद्री चहारोगेण पीडित: ॥ १९८॥ विनयादयः सदा शांतो जिनामाप्रतिपालकः । कस्याप्यढःखदो यस्तु स यशस्वी मवेदिव ११६६ ॥ पाठयति पठति ये वाङ्मय द्वेषर्जिताः | उत्कोचादिन गृहति तेषां स्याद् विमला मतिः ॥२०॥ गुणिनं च तपोयुक्त विद्यावतं यशस्विनं । कुधाषगणयत्येव स नियुजि: प्रजायते ॥ २०१॥ भाक्तिको देवगुर्वाश्च पापपुण्यचिदः स्फुटं । जिनध्यानाशयो यस्तु भवेत्सोऽपि विदांचरः । २०२ ॥ यस्य चितऽस्ति नास्तिक्यं जीवधर्मादिभावना । मन्यते नैष मोधः स ke विद्यमान रहते भी जो पुरुष कोडी वराबर भी किसीको नहीं देता यदि किसीको कुछ देता भी। है तो "हाय सब कुछ जानकर मूह बन मैंने क्या कर डाला जो अपना धन देदिया ऐसा पश्चा| ताप करता है । जो महानुभाव धन देना चाहते हैं उन्हें भी दान देनेसे रोकता है वह मनुष्य संसारमें भोगरहित दरिद्री एवं हर्षा नामके विशेष रोग ( मृगी) से पीड़ित होता है। १९७-१९८॥ जो महानुभाव विनय शील होता है। सदा शांत रहता है । भगवान जिनेंद्रकी आज्ञाका पालन करने वाला होता है और किसीको भी दुःख देना नहीं चाहता वह संसारमें यशस्वी पुरुष माना जाता है। सारा संसार उसके यशका गान करता है ।। १६६ ॥ जो महानुभाव द्वेष रहित होकर जैन शास्त्रोंको पढ़ाते हैं और स्वयं भी पढ़ते है तथा पढ़ने पढ़ानेमें किसी प्रकारकी द्रव्यकी अभि| लाषा नहीं रखते वे मनुष्य निर्मल बुद्धि के धारक माने जाते हैं ॥ २००॥ जो पुरुष क्रोध कषायके आवेशमें आकर गुणी तपस्वी विद्यावान और यशस्वी मनुष्योंका अनादर करते हैं वे मनुष्य निचुद्धि पागल होते हैं ॥ २०१ ॥ जो महापुरुष देव और गुरुओंके भक्त रहते हैं। पाप और पुण्यका | स्वरूप जानते हैं एवं भगवान जिनेंद्रके गुग्गों के चितवनमें ही चित लगाते हैं वे मनुष्य संसारके kdi अंदर विद्वान् होते हैं । २०२ ॥ जो मनुष्य नास्तिक होता है जीव धर्म अधर्म आदि किसीको भी नहीं मानता वह पुरुष निन्दित हृदयका धारक मूर्ख माना जाता है ॥ २०३ ॥ जो निर्दयी । सकपक K
SR No.090538
Book TitleVimalnath Puran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size14 MB
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