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________________ विमल ८४ 作者やわやわんや स्याम्मूढः कुत्सिताशयः ॥ २०३ ॥ मृगहंसशुकादीनां ग्रहण कृत्वा सुपंजरे । रक्षति यस्तु पापीयान् कातरः स्याद्भवे भवे ॥ २२४ ॥ जीवानां पालने शक्तः परपीडाचिनाशकः । बुभुक्षितप्राध्वंसी भवेद्वीरः स पुण्यभाक् ॥ २०५ ॥ असहये मनो भावो ने संबो भचीति । ईषदानप्रभावेण लक्ष्मीषांश्च स जायते ॥ २०६ ॥ पूर्वं दत्वा मनस्तापं वितनोति यतस्ततः । लब्धपद्मा च वृद्धत् निर्धाऽभिभवेन्नरः ॥ २०७ ॥ पशूनां पक्षिणां चैत्र शाषकांस्त्रासयति पे । गृहति परविधं वा स्युः सुतास्तस्य देव च ॥ २०८ ॥ भवत्यथ विनश्यति ऋणशत्रु प्रभावतः । तदभावाद्भवत्येव पुत्राः परमसुन्दराः ॥ २०६ ॥ अश्रुतं कथयत्येव वधिरः स प्रजायते । मनुष्य मृग हंस तोता आदि दीन पक्षियोंको पकड़कर पींजरे में बंद रखते हैं उनको पालते पोषते हैं वे पापी भव भवमें डरपोक होते हैं ॥ २०४ ॥ जो पुण्यात्मा जीवोंकी रक्षा करनेमें दत्त चित्त रहता है। दूसरेका दुःख दूर करना अपना कर्तव्य समझता है । जो प्राणी तुधासे व्याकुल होते हैं उनकी चुधाको दूर करता है वह पुण्यवान पुरुष संसार में वीर होता है ॥ २०५ ॥ धनको अपवित्र पदार्थ मानकर जिस महानुभावका हृदय उसके दान करनेकेलिये लालायित रहता है वह महापुरुष थोड़े दान के प्रभाव से ही पूर्ण लक्ष्मीका पात्र वन जाता है ॥ २०६ ॥ जो मनुष्य पहिले तो किसी कारण से दान दे देता है किन्तु पीछेसे बड़ा दुःखी होता है पछितावा करता है। उस मनुष्यकी वृद्धावस्था में पास में रहनेवाली लक्ष्मी चली जाती है। वह निर्धन हो जाता है । अनेक प्रकारके उसे तिरस्कार सहने पड़ते हैं ॥ २२७ ॥ जो दुष्ट पुरुष पशु और पक्षियोंके बच्चोंको त्रास देते हैं और दूसरेके धनको हरण करते हैं उनके पुत्रोंकी प्राप्ति नहीं होती ॥ २०८ ॥ अथवा दूसरेका धन अपहरण कर जिन्होंने नहीं दिया वे मनुष्य ऋणी कहे जाते हैं उस शत्रुके प्रभाव कदाचित पुत्र हों भी तो वे मर जाते हैं किंतु जो मनुष्य दूसरोंके कारण नहीं होते और पशु पक्षियों बच्चों का त्रास देते हैं उन मनुष्योंके अत्यन्त रूपवान पुत्र होते हैं ॥ २०६ ॥ जो मनुष्य बिना ही सुने कुछका कुछ दूसरेका दोष बोल देता है वह वधिर - वहिरा होता है तथा जो बिना ही देखे यह कहता है कि मैंने अमुक अमुक दोष देखा है तथा रोकनेपर भी वह उस रूपी KPKVYAP KPAL
SR No.090538
Book TitleVimalnath Puran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size14 MB
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