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योगी महामनाः । वज्रनलिका नाम्ना स्थित्या मांनुपमस्तके ॥१११ ॥ निशीथे दारयंती: सा पटिशवाहुरुन्नता । शैलन् किलकिलारावसपूरितनमस्तला ॥ ११२ ॥ बनविंशतिसंयुक्ता तत्रागत्यावीदिति । कोऽसि त्वं च कथंकार स्थितोऽस्यत्र महावनेः॥ ११३ ॥ इत्युक्त्वा भतम्ययंती तं चालय ती तदापि सः । न चचालासनाद्योगी प्रत्यक्षीभ यमागता
॥ ११४॥ वर' वणीश्य है बत्स ! पतित दुरासद'. तदा श्रुत्वा महादेच्या वचन' कौलिको जगी ॥ ११५ ।। दद्या| श्च त्वं वर मह्य तहि भाग्योदयो मम । सर्या विद्या प्रसन्नाश्च जयश्व पररवि ।। ११६ ॥ वर प्रामाण्यतो मालर्यक्षयोयो |
विद्या सिद्ध करने लगा ॥ १११॥ वह क्ज,खलिका नामकी विद्या छत्तीस भ जाओंकी धारक थी | - अपने किल किल शब्दसे समस्त आकाश मण्डलको गुजानेवाली थी एवं चौवीस उसके मुख थे। | बस अपनी प्रचंडतासे अनेक दुधर पर्वतोंको डहाती हुई वह विद्या शोध्र ही कापालीके पास आई
और रून शब्दोंमें इस प्रकार उसे धमकाने लगी___अरे तू कौन है और किस आशासे इस भयङ्कर महा वनके अंदर आकर बैठा है। इतना ही नहीं अनेक उपायोंसे उस योगीको ताड़ने लगी और आसनसे डिगाने लगी ... वह योगी अपने अटल सिद्धांत पर दृढ़ था इसलिये उस विद्या द्वारा अनेक प्रकारसे 2... भी वह रंच- पात्र भी अपने ध्यानसे न डिगा अचलरूपसे अपने आसन पर स्थिर रह .. अंतमें वह विद्या प्रत्यक्ष होकर सामने आकर खड़ी हो गई एवं उस कपालीसे प्रसन्न हो इसप्रकार कहने लगी
वत्स ! मैं तुमसे राजी हुई,कठिनसे कठिन अपनी इच्छानुसार वर मागो में देनेको तयार हूं। kal क्स महा देवीके ऐसे प्रसन्न वचन सुन कापालीने कहा-मां ! यदि तुम मुझे वर देना चाहती
हो तो मैं अपना परम सौभाग्य समझता हूं आपके वर प्रदानसे में यह समझता हूं कि समस्त वद्याये मुझसे प्रसन्न हो चुकी और मैं अत्यन्त वलवान भी शत्रु ओंके लिये दुर्जय हो गया। माते. रवरी! मैं आपसे यह वर चाहता हूं कि आप रणके मैदानमें युद्ध करनेके लिये दो यक्षोंको दें
RUrhaERSATIRERAKHAYE
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