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३५९ ।। मुनिराहेति राजानं यदेमि भोजनाय वै । अनुमोदनं तदा दोषोऽन्ततो जीवन च धिक् ॥ ३२॥ श्रुत्वा नत्वा ययौ राजार जयत्स्वप्रजाः प्रजाः । एकदा दायितस्तेन पटहो हि पुरेऽखिले ॥ ३५३ ॥ भो लोकाः ! योमिने यो हि दास्यत्याहारमात्रकं । राजप्रायो भवेत्तोऽपि भोजयिष्याम्यई खलु ॥ ३५४ ॥ एकदा मुनिराजोऽसावागतो भोजनकृते । मासोपवासिको ध्यानी नैब केनापि रशिन: राजद्वारे यदा यातो वैरिदूतस्तदागतः । मुनीराशा हि न झातो विग्रहत्वान्मुनिर्गतः ॥ ३५६ ॥ मासयोपवासी स पारणार्थ समाज मोदन करना ये प्रायः एक समान ही हैं तथा इस अनुमोदन दोषसे व्रत भंग होगा और इतके विन। संसारमें जीना व्यर्थ है । मुनिराजका यह उत्तर सुन राजा सु मित्र और अधिक कुछ न बोल सका बस मुनिराजके वचन सुन और उन्हें नमस्कार कर राजमहल लोट आया एवं अपने पुत्रके समान प्रजाको रंजन करने लगा । एकदिन बैट ही बैंट उसके मन में उचंग उठ खड़ी हुई। उसने समस्त नगरमें ड्योढी पिटवा दी और यह घोषणा कर दी
समस्त प्रजाको सूचित किया जाता है कि मुनिराज सुषणको कोई भी आहार न दे। मेरी आज्ञा न मानकर जो उन्हें आहार देगा वह राजाको ओरसे दण्डित किया जायगा क्योंकि उन्हें आहार देनेका पूरा संकल्प मेंने कर लिया है। केबल में ही उन्हें आहार दूंगा ॥ ३५० ३५४ ॥ एक मासके उपवासके बाद ध्यान शील वे मुनिराज सुषेण एक दिन आहारकेलिये नगरमें आये kal मुनि चर्या के अनुकूल वे जहां तहां घरोंमें घमे परंतु राजाके भयसे किसीने भी उन्हें आहार दान
न दिया ॥ ३५५ ॥ जिससमय वे राजमहलमें आहारकेलिये गये तो उस समय राजा सुमित्रके न किसी बैरीका दूत राजसभामें आ गया। उसकी गड़बड़में राजा उन्हें न देख सका। वे मुनिराज
अंतराय कमका प्रबल उदय जान वनको चले गये ॥ ३५६ ॥ दो मासके उपवासके बाद व kd पुनः पारणाके लिये नगरमें आये । मुनिचर्यानुसार सर्वत्र घूमकर वे आहारके लिये राजमहल
में गये। जिससमय मुनिराज राजमहल में प्रविष्ट हुए उसीसमय राजा सुमित्रके किसी दुष्ट |
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