SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पचप पतवेष्टिताः । कर्वटानि विर्भात्येय परितः पर्वतरपि ॥ १५ ॥ वृत्यैव वेष्टिता यत्र ग्रामा भांति पदे पदे पर्वतोपरि संस्पानि बाह मानि विभांति च ॥ १६ ॥ यत्र राजतके द्रोणा धनद्रोणा इवापरे । पयोराशिधिता वाद चिडुमावलिरंजिता ॥१७॥ शुकचंचुहरित्यंग वशी ः कषुरितानि च । शालिवप्राणि राजते कामस्य सद्गृहा इव ॥ १८॥ इक्षुशोभा हि यत्रैध लोचन वासिनी परा । पदे पदे लस. त्येष स्यर्गिणामापि दुर्लभाः॥ १६ ॥ हंससारचक्रोणि मितानि सरीस च । स्वच्छतोयादि सोते नानावृक्षतटानि वै ॥ २० ॥ 9 पड़ते हैं ॥ १५॥ जिनके चारों ओर बाड़-परकोट खिचे हुए हैं ऐसे गांव जगह जगह वहांपर सुंदरतासे बसे हुए हैं जो कि नेत्रोंको अत्यंत प्यारे जान पड़ते हैं तथा पर्वतोंसे भी ऊंचे रथ आदि बाहन उस देशकी अत्यंत शोभा बढ़ाते हैं ॥ १६ ॥ उस देशके द्रोणा--जलके भरे तालाब धनके I खजाने सरीखे जान पड़ते थे क्योंकि जिसप्रकार तालाब “पयोराशिश्रिताः" पय--जलकी राशिसे । शोभायमान थे उसोप्रकार धनके खजाने भी पय -रत्न आदिकी राशिसे शोभायमान थे । जिस ! प्रकार बालाब 'विद्रुमावलिरंजिताः' विद्रुम--वृक्षोंकी पंक्तियोंसे शोभायमान थे उसीप्रकार धनके खजाने भो विद्रुम--मूगोंके समूहसे शोभायमान थे ॥ १७ ॥ उस देशके पके हुए धान्योंके खेतोंमें 2 शुक-तोते पड़ते थे इसलिये शुकोंके लालबर्ण और अपने हरे वर्णसे रंग विरंगे अत्यंत शोभाय | मान जान पड़ते थे अतएव लोग उन धान्योंके खेतोंको कामदेवके साक्षात् उत्तम घर समझते | थे ॥ १८ ॥ वहांपर जगह २ नेत्रोंको प्रफुल्लित करनेवाली ईखके वृक्षोंकी शोभा अत्यंत शोभायमान जान पड़ती थी जिस शोभाका निरखना देवोंको भी अत्यंत दुर्लभ था ॥१६॥ वहाँके तालावों पर हंस सारस और चकोर पक्षी विचरते फिरते थे निर्मल जलसे वे परिपूर्ण थे और उनके तट भागोंकी भांति भांतिके वृक्ष विचित्र शोभा बढ़ा रहे थे इसलिये वे तालाब नेत्रोंको परमानंद प्रदान करते थे ॥ २० ॥ वहांके आम वृक्षोंके बनामें जगह जगह भ्रमण करते हुए भौरोंके भुन भुनाट शब्द सुन पड़ते थे। कोकिल हंस और भोरोंके महा मनोहर शब्द होते थे इसलिये वहांकी Жүкүккккккккккккккккккккк च पहर
SR No.090538
Book TitleVimalnath Puran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy