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Padaki
बुधैः प्रोक्त दशधा धर्मसाधन' यावृस्ये कतेऽधर्मो भ्रश्यते नाथसैन्यवत् ॥ १०५ ॥ महतो गुणमुक्तस्य ज्ञानसर्पगतस्य च । मक्तिः स्तोत्रादिभिर्या तु साईक्तिमता भ्रूते ॥ १०६ ॥ णमुशाय ध्यानि तानिधेः । भावतो भक्तिराख्याता सरिभक्तिर्जिना गमे ॥१०७॥ शास्त्राणां बहुसंख्यानां ज्ञातुःपूर्वांग धारिणः। भक्तिश्च नैगमें प्रोका भूरिसारंग भक्तिका ||१०८१ राज्ञांतस्य च यद्वाक्यं सत्यं मत्वार्चयेत्सुधीः । अकाले सन्न पश्येत ह्यभ्रांतं प्रस्रो मतं ॥ १०६ ।। पड़ावश्यकस्पाचारविधिने वोफ्लंक्येत् । आवश्यक | हि तत्प्रोक्तं कालनयनियोजितं ।।११०॥ जैनधर्मस्य माहात्म्य प्रकाशयति कोटिधा । मार्गमावना सैव प्रोका चिपचिंतिभिः ।। १११ धर्मिणां वृतिनां नूनं शीलयुक्त तपोभृतां । दानिना मृदुचितानां संशा वात्सल्य मुच्यते ॥ ११२।। तपस्वी पासेनाक्ष्य पताः सद्भावना: द्भक्ति कही गई है ॥ १०॥ छियालीस गुणोंके धारक तपकेभंडार और ध्यान करनेवाले आचार्यकी जो भावपूर्वक भक्ति करना है वह आगममें आचार्य भक्ति मानी गई है ॥ ११॥ बहुत शास्त्रोंके | जानकार, ग्यारह अंग चौदह पूर्वोके धारक महात्माकी जो भक्ति करना है वह बहुश्रुत भक्ति
आगममें कही गई है ॥ १२॥ सिद्धांत बाक्योंको सर्वथा सत्यमान कर उनकी पूजा प्रतिष्ठा करना Wऔर आगमके पढ़नेका जो समय बताया गया है उसी समय उसे पढ़ना असमयमें न पढ़ना एवं
किसी प्रकारका उसमें भम न रखना प्रवचन भक्ति है ॥ १३ ॥ सामायिक चतुर्वि तिस्तव बंदना । प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ये छह प्रकारके आवश्यक माने हैं इन छह प्रकारके आचरणोंका उल्लंघन न करना एवं तोनों काल उनका यथायोग्य आचरण करना आवश्यकापरिहाणि नामकी भावना है। १४ । करोड़ों उपायोंसे जैनधर्मके माहात्म्यका जो चितवन करना है वह चैतन्य
स्वरूपकी चिंता करनेवाले आचार्योंने मार्गप्रभावना नामकी भावना मानी है ॥ १५ ॥ जो मनुष्य Aधर्मात्मा हैं। व्रती हैं। शील और तपके भण्डार हैं। दानी हैं और कोमल चित्तके धारक साधर्मी
हैं उनकी प्रशंसा करना प्रवचन वत्सलत नामकी भावना है॥ १६ ॥ ६५--११२ ॥ वे तपके भण्डार मुनिराज पद्मसेन समस्त प्रकारकी परिग्रहसे रहित हो दर्शन विशुद्धि आदि सोलह भावनाओंको
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