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सुरार्चितं । प्राप्त मया सुपुण्येन धर्मातिक न भवेदिति ॥१४॥वितधर्य मानसे स्वीये देवीदेवसमन्वितः। मेरौ जगाम यात्रा तथा नंदीश्वरादिषु ॥ १४ ॥ असंख्यद्वीप वाराशोन् गत्या दृष्ट्वा समागतः । रेमे सुरांगनाभिध कीड़ा लेषु प्रत्यहं ॥ १५२ ।। दीधिका स्वच्छतोयेन पंकजावलिनालिना । चुंबितेन सुखं स्नात्वा पूजयामास श्रीजिनान् ॥ १४ ॥ शब्दसंभोग संजीनो देशी निकरमध्यमः । शाह हह कृत नाट्य पश्यतिम निकुशः ॥ २४ ॥ महादशसमुद्रायुरेक बापतमूच्छितिः । वर्तते देवनाथस्य बांकितकरस्य च ॥ १४५ ॥ द्रव्यभावप्रभेदेन शुक्लेश्या वयेन च । जघन्येन युनः पाठेश्योरकष्टनया पुनः ।। १४६ ॥ तृप्तो रूपरवाचार - बातुर्थ नरकाशि: में जाकर और उन्हें देखकर वह अपने स्थान लौट आया एवं प्रतिदिन अनेक देवांगनाओं - साथ साथ क्रीड़ा पर्वतोंमें अनेक प्रकारकी क्रीड़ायें करने लगा। वह पुण्यात्मा देवराज कमलोंकी | वेलोंसे व्याप्त एवं जिसका आखाद सुगन्धिसे मतवाले भोरे सदा लेते रहते थे ऐसे वावड़ियोंके - स्वच्छ जलमें वह स्नान कर, भगवान जिनेन्द्रोंकी पूजा करने लगा ॥१३६–१४३॥ सहसार नामक
बारहवें स्वर्गमें देवांगनाओं के भूषणों के शब्द सुनने मात्रसे ही देवोंकी मैथुन अभिलाषी तृप्त हो । A जाती है इसलिये वह सहसारेंद्र सदा शब्द जनित भोगोंमें लीन रहता था । अनेक देवांगनाओंके ।
मध्यमें बैठकर आनन्द किलोल करता था एवं हा हा हूँ आदि शब्दोंसे जायमान नत्यको सदा निद्वंद्व हो देखता रहता था ॥ १४४ ॥ उस पुण्यारमा देवेंद्रकी अठारह सागर प्रमाण आयु थी। एक धनुष प्रमाण शरीरकी ऊंचाई थी और उसके हाथ वजूसे अंकित थे॥ ४५ ॥ सहलार स्वर्ग में पद्म और शुक्लके भेइसे दो लेश्यायें मानी हैं उनमें शक्ल लेश्या जघन्य रूपसे और पद्म लेश्या उत्कृष्ट रूपसे मानी है। वह देवेन्द्र द्रव्य और भाव स्वरूप जघन्य शुक्ल लेश्या और
उत्कृष्ट पद्म लेश्या इस प्रकार दो लेश्याओंसे मीडित था ॥१४६॥ प्रवीचारका अर्थ मैथुनाभिलाष Kा है। वह देवेंद्र शब्द प्रवीचारसे तृप्त था। अपने अवधि ज्ञानसे चौथे नरक तकको बातें जान सकता
या। अबधि ज्ञानका विषयभूत जितना क्षेत्र बतलाया गया है वहां पर्यत विक्रिया करनेकी वह सामर्थ रखता था और अणिमा महिमा आदि आठ प्रकारके ऐश्वयोंसे शोभायमान था ॥ १४७॥
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