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बुधिः | १२ | सज्जना अपि नंदंतु दुर्जनाश्च विशेषतः । स्तुतिनिद्यकरा नू
आदि के सामने तुच्छबुद्धिका धारक हूँ तथापि मेरे मनमें जो चरित्र विद्यमान है उसे मैं अपनी थोड़ीसी बुद्धिसे भी वर्णन करनेका विशेष आकांक्षी हूं' यहांपर यह कल्पना न कर बैठना चाहिये कि जब जिनसेन आदि सरीखे उद्भट विद्वान हैं तब तुम्हारो आवश्यकता क्या १ क्योंकि जहांपर सूर्य का प्रवेश नहीं होता वहां पर दीपक से भी काम चला लिया जाता है अर्थात् जो महानुभाव 1. जिनसेन आदि सरीखे उद्भट विद्वानों के गम्भीर वचनोंका तात्पर्य नहीं समझ सकते थे मेरे साधार वचनसे लाभ कर सकते हैं। इसलिये मेरे द्वारा किये गये पुराणका वर्णन व्यर्थ नहीं । १० | ११ | फिर भी यह बात है कि मैं अपनी बुद्धिको कल्पनासे कुछ कहू तो वह कल्पना भगवान जिनसेन आदिको कल्पनाके सामने फीकी मानी जा सकती है क्योंकि उनकी वृद्धि विशाल है और मेरी तुच्छ है परन्तु सो तो बात है नहीं किन्तु मुझसे महान और उत्कृष्ट पूर्व आचार्यों ने जो कहा है कमसे मैं उसोको कहता हूँ । यहां पर भी यह न समझ बैठना चाहिये कि जब तुम्हारी बुद्धि तुच्छ है तब विमलनाथ पुराण सरीखे विशाल कार्य में तुम्हारा प्रवृत्त होना व्यर्थ है लोकमें ऐसी कहावत है कि अगस्त नामका ऋषि मामूली था परन्तु वह सारे समुद्रको पी गया था इस लिये क्षुद्र भी अगस्त ऋपिने जब विशाल भी समुद्र पी डाला था तथा बुद्धिका धारक भी मैं विशाल पुराएका वर्गान कर सकता हूँ क्या आश्चर्य है ? ॥ १२ ॥ बहुत से लोग स्तुति करनेवालोंको अच्छा समझते हैं और निन्दा करनेवालोंको बुरा समझते हैं परन्तु ग्रन्थकार कहते हैं कि यह बात मुझे पसंद नहीं मैं तो यह कहता हूँ कि स्तुति करनेवाले सज्जन भी संसार के अन्दर वृद्धिको प्राप्त हों और निन्दाके करनेवाले भी विशेषरूपसे वृद्धिको प्राप्त हों क्योंकि उनके भयसे कविकी विशुद्धता बढ़ती है। दुर्जन जितने जितने दोष निकालते जायेंगे कविता भी उतनी
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