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तत्र वृत्तांतं प्रतिपादितं । तैलेन मननं कृत्वा गतभ्यं मम सदुगृहे श्रुत्थाथ चिंतयित्वासौ तोये तैलं क्षिपाहतं ॥ १५७॥ (घट्पदी) Me किमर्थं सा जगौ रम्या येन साधं समागतः । तस्यास्ति रूपसद्धारभूषिताकन्यका शुभा ॥ १४८ ॥ तया नंदश्रिया त्वं भो आकारित
इव भू च। तदा प्राह कुमारोऽसौ कुत्रास्ते सदनं तब ॥ १४६ ॥ दर्शयित्वा तदा कर्णताल सैव ययौ गृहं । स्नात्वा विज्ञानतो याचदाः । ___ वह कुमार इससमय तालावके किनारे बैठा है । मैं उससे यह कहकर आया हूं कि मेरी आज्ञाके | विना तुम कहीं भी मत जाना इसलिये जबतक मेरी आज्ञा उसके पास न पहुंचेगी वह कहीं जा नहीं सकता। अपने पिताके ये मनोहर वचन सुन कुमारी नंदश्री विचारने लगी यद्यपि वह कुमार | संसारमें एक बुद्धिमान पुरुष रत्न है तथापि और भी उसकी परीक्षा करलेना परमावश्यक है इस
लिये शीघ्र ही उसने अपनी विपुलमती नामकी प्रियसखो बुलवाई और प्रेममय वचनोंसे ko उससे यह कहा कि मैं जिस कार्यके करनेकी तुमसे प्रेरणा कर रही हूं उसे शीघ करो। देखो
तालावके किनारे कोई अन्य देशका पुरुष बैठा है। नखमें तेल भरकर तुम शीघ्र उसके पास जाओ
और उससे कहो कि आप यह तेल लेकर शीघ्र स्नान करिये ॥ १३६--१५६ ।। कुमारी नंदश्रीके वचन सुन सखी विपुलमती शीघ्र ही तालावके किनारे जा पहुंची।नंदश्रीने जो कहा था सारा समाबोर कुमारसे कह सुनाया एवं तेल लगाकर स्नानकर आप मेरे घर चलें, यह निवेदन भी कर दिया। विपुलमतीके वचनोंपर थोड़ी देर तक कुमारने विचार किया एवं इस तेलको इस जलमें डाल दो, ऐसा कहकर उससे यह पूछा| तुम्हारे घर मुझे क्यों चलना चाहिये ? उत्तरमें मनोहरांगी विपुलमतीने कहा--प्रिय महानुभाव जिस महापुरुषके साथ तुम आये हो उसके एक नंदश्री नामकी पुत्री है जो कि दिव्य सौंदर्यके भारसे शोभायमान है और शुभ है उसी कुमारीने आपको बुलाया है आप किसी प्रकारका संदेह न करें। विपुलमतीकी यह बात सुन कुमारने पूछा तुम्हारा घर कहां है ? इसके उत्तरमें विपुलमती । ने कुछ भी नहीं कहा उसके कानमें जो तालवृत्तके पत्तेकाबनाभूषण था उसे धीरेसे दिखाकर वह चुप
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