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याति सदन प्रति ॥ १५०॥ तावन्नंदश्रिया द्वारं कारित कदमाकुलं । जानुषंगं दृषट्सग स्थिता पश्यति कौतुकं ।। १५१३ ताइचिन का मत्वा स द्वारे समागतस्तदा । दृष्ट्या कदमसंतानं चितयामास मानसे ॥ ३.५२ ।। पुरमध्ये पुराभ्यणे प्रतोल्यो प्रतिसम्म च नो दरी
चाप अपने घरको चली गई। बुद्धिमान कुमारने अपनी चतुरतासे उसका इशारा समझ लिया 2 9 एवं जिस घरमें तालवृक्ष हो वही कुमारी नंदश्रीका घर है ऐसा विचारकर वह कुमार स्नानकर उसी |
घरकी ओर सीधा रवाना हो गया ॥ १४७--१५० ॥ विपुलमतीके मुखसे कुमारका आना सुन नंद-12 श्रीने अपने दरवाजे के सामने घोंट पर्यंत कीचड़ भरवा दी। ठीक दरवाज के सामने पत्थर रखवा दिये जिससे यह जान पड़े क भीतर जानेका रास्ता इन पत्थरोंके टुकड़ोंके ऊपरसे है एवं कुमारका A कौतुहल देखने के लिये वह सामने खिड़कीमें बैठ गई ॥ १५१ ॥ नंदी के घरमें ताड़का वृक्ष था
ताड़के चिह्नसे उसी घरको नंदश्रीका घर जान कुमार उसके दरवाजे पर आ गये एवं दरवाजे के मागेका भाग कीचड़से भरा हुआ देख वे इसप्रकार मन ही मन विचाने लगे--
न तो नगरके मध्यभागमें कीचड़ दीख पडती है न नगरके पास कहीं कोचड दीख पडती है। किसी गली वा किसी मकानमें भी कीचड़ नहीं दीख पड़ती परंतु इस मकान के सामने कीचड़ दीख पड़ती है इसलिये इस कीचड़के होने में अवश्य कोई न कोई रहस्य छिपा हुअा है—क्या वात है सो कुछ जान नहीं पड़ती घरके भीतर जाने के लिये जो यह पत्थरके टुकड़ोंका मार्ग बनाया गया है जान पड़ता है मेरी बुद्धिको परीक्षाके लये यह धोखावाजी की गई है यदि मैं इस पत्थर के टुकड़ोंके बने मार्गसे घरके भीतर जाऊंगा तो अवश्य नीचे कीचड़में गिर जाऊंगा तो सारा लोक मेरी हँसी करेगा इसलिये मुझे कीचड़ में होकर हो जाना चाहिये बस इसप्रकार विचारकर के कीचड़के भीतरसे जाकर नंदश्रीके दरवाजेपर पहुंच गये। कुमारके इस तीत्र कौशलको देखकर नंदश्रीने मन ही मन उनके कौशलकी सराहना की एवं दिल्लगीसे फिर भी कुमारकी बुद्धिको परी
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