________________
बमल०
8.
ЖұқекеКүкүкүкееkеkЕКЕКТүү
राजेष सद्धनः। एकदा मंदिरे नेतु गतश्चैत्यालयान् ध्रुवं ॥५१४॥ यदा विजयास्थिस्य वालकास्पस्य पुत्रिका | नाम्ना सुभ्रदिका दृष्टा सवाई विस्मयं गतः । ५१५ । कामशक्तिनाशुशवालयमारवासासह देष! मानुष्यं सफलीकृतं ॥ ५१६ ॥ खगचक्री हृता मात्वा तनूजां पूरयन्नभः । आजमाम महाक्रोधानानाविद्याविशारदः ॥ ५५७ ॥ सोऽपि मां संगरे जित्वा मम विद्या निहत्य च । नीत्वा सुतां गतो मेहे बभूषाई च भूचरः ॥ ५१८ ॥ द्वादशाब्दसुपर्यंतं मंत्रजाप्यं करोमि च । विद्यार्थ भो तथाप्यत्र सिद्धिर्नाभूद्गुणप्रिय ! ॥ ५१६ ॥ सांप्रतं तु गृहे गंतु कामोऽस्मि गृहमायया । भ्रुत्वा जगाद मंत्रीशस्तन्मत्रं मे समर्पय ॥ ५२० ।
विजया पर्वतकी उत्तर श्रेणीमें एक गगन प्रिय नामका नगर है मैं वहांका वायुवेग नामका विद्याधर राजा है। जो कि चन्द्रमाके समान शोभायमान और उत्तम धनसे मंडित हैं। में एक दिन (मेरुवा विजया) पर्वतके चैत्यालयोंकी बंदना करने गया था वहींपर विजयार्ध श्रेणिक स्वामी राजा वालककी सुभद्रा नामकी पुत्री भी आई थी जो कि परम सुन्दरीथी। उसे देखते ही मैं|
चकित हो गया। कामवाण मुझे बुरी तरह वेधनेलगे इसलिये वह मैंने बलपूर्वक हरण कर ली। al अपनी प्राणप्यारी बनाई और उसके साथ मैंने अपना मनुष्यजन्म सफल बनाया ॥ ५१३-५१६॥ विद्याधरोंके स्वामी उसके पिता राजा बालकको यह पता लग गया कि में सुभद्राको हर लाया हूँ,
वह मारे क्रोधके पजल गया और समस्त आकाशको आच्छादता हुआ मेरी नगरीकी ओर चल 4 ल दिया। वह अनेक विद्याओंका धनी था इसलिये मेरी और उसकी जिससमय मुट मेंट हुई। IS संग्राममें उसने मुझे जीत लिया। मेरी विद्याभोंको नष्ट कर दिया । अपनी पुत्री सुभद्राको घर ले dगया और मुझे विद्यारहित भूमिगोचरी बना दिया ॥ ५१७-५१८ ॥ गुणप्रिय कुमार! विद्यासिद्ध
करनेके लिये बराबर वारह वर्षोंसे मंत्रोंकी जाप कर रहा है तो भी मुझे विद्यासिद्ध नहीं हुई है। बस अब में हताश होकर घरकी चिंतासे अपने घर जारहाहूं। वायुवेगकी यह बात सुनकर मंत्रोश अभयकुमारने कहा-भाई! यदि तुम जाते हो तो उस मंत्रको मुझे बता दो। वायुबेगने मन्त्र बता |
पएekx