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रामा समोपमाश्च प्रयलबलब्रजध्वस्त शत्रू त्करत वं' । यस्मात्स्वर्गश्व मुक्तिः सकलबुधजनास्त' भजध्वं मज ॥ ४८४ । कृष्णदाससुखदं वृशमेशं लेखनाथनर नाधनता च ध्यः यताशु सुजना नितरां तं श्वेतभूचरसटे शिवमेधः ॥ ४८५ ॥
इत्यार्षे श्रीवृद्विमलनाथपुराणं भट्टारक श्रीरत्नभूषणाम्नायालङ्कारविजन चातुरीसमुद्र चंद्राचाभयभाषा तिवारिका तनूजा कृष्णदासविरचिते ब्रह्ममङ्गलास साहाय्यसापेक्षे श्रीविमलवाहन दोक्षाज्ञानमधुस्वयं नूबलभद्रसमृद्धिवर्णनो नाम चतुर्थः सर्गः ॥ ४ ॥
तुम्हें पवित्र धमका अवश्य आराधन करना चाहिये- - भरके लिये भी धर्मसे मुख मोड़ना न चाहिये ॥ ४८४ ॥ हे सज्जनो ! तुम भगवान ऋषभ देवका ध्यान करो जो ऋषभदेव भगवान, ग्रन्थकर्त्ता कृष्णदासके सुखके देनेवाले हैं । जिनके चरण कमलोंकी व २ देवेंद्र और नरेंद्र सेवा करते हैं और जिन्होंने कैलास पर्वतसे मोक्षको पाया है ॥ ४८५ ॥
इसप्रकार भट्टारक रत्नभूषण की आम्नायके अलङ्कार स्वरूप विद्वानोंकी विचारूपी समुद्रके लिये चन्द्रमा स्वरूप उमय भाषा वीरका पुत्र अपसे छोटे भाई ब्रह्ममंगलदासकी सहायता से ब्रह्मकृष्णदास विरचित वृहद विमलनाथ पुराण में भगair foretreat far fवधान और मधु स्वयंभू और बलभद्र धर्मका समृद्धिका वर्णन करनेवाला चाया सर्व समाप्त हुआ || ४ ||
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पांचवां सर्ग ।
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प्रजापतिं जनं नौमि सादर शर्मसिद्धये । स्याद्रादायक कंप्रगीत सुरयोषितां ॥ १॥ कदा देवमभ्रांतिवर्जितः । जो भगवान जिनेन्द्र प्रजापति आदि ब्रह्मा हैं | कमोंके नाश करनेवाले हैं । स्याद्वाद विद्या के नायक हैं एवं देवांगना अपने कण्ठसे जिनके यशका गान करती हैं उन भगवान जिनेन्द्रको
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