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स्थितो मध्य प्रांजलिः परमोदयात् ॥ ३८ ॥ धर्मवृद्धि प्रदाभास्मे सुनिः प्रहसहित इन धर्म जिनोदितं ॥ ३६ ॥ श्वभ्रतिर्यग्गतिभ्यां यः समुद्धरति देहिनः । तं धर्म मुनयः प्राहूरजुः कृपादिव स्फुटं ॥ ४० ॥ सांगतं दृश्यते यश्च तत्सत्यं नैव दृश्यते । अनित्यो भवो विद्धि समाख्यांतो व्यलीकदः ॥ ४१ ॥ संयोगविप्रयोगोत्थं भवे दुःखं भृशांपते । तेन दुःखेन तल्लब्धिर्म स्यादश्वविषाणवत् ॥ ४२ ॥ संयोगे विप्रयोगे च नानाकर्म दृढी भवेत् । कर्मणायाति पातालं संसृतो भ्रमणं पुनः ॥ ४३ ॥ कस्य श्रीसुतायादिराज्यं प्राउयं वपुः सुख' । किं न धनेऽनुयास्त्येव स्नेहव्यर्थ मतोऽखिलं ॥ ४४ ॥ ते धीरः सुखिनस्तेपि विश्वधास्ते
राजन ! मैं भगवान जिनेंद्र के द्वारा प्रतिपादित, अतिशय हितकारी धर्मका उपदेश देता हूं. | तुम ध्यान पूर्वक सुनो जिस प्रकार रस्सो कूवेमेंसे घड़ा आदि चीजको बाहर खींच लेती हैं उसी प्रकार जो धर्म जीवोंको नरक और तिर्यच गतिले छुटा दे उसे ही वास्तविक धर्म कहते हैं । ३६ । ॥ ४० ॥ जो चीज सवेरे देखनेमें आती है वह शामको देखनेमें नहीं आती इसीलिये विद्वानोंने संसारको अनित्य और दुःखोंका देनेवाला टहराया है ॥ ४१ ॥ संसारमें रहकर संयोग और वियोगोंसे जायमान प्रचुर दुःख भोगने पड़ते हैं एवं उन दुःखोंसे जिस प्रकार घोड़े के सींगो में धर्मकी प्राप्ति नहीं होती उस प्रकार धर्मको प्राप्ति नहीं हो सकती ॥ ४२ ॥ राजन् ! संसार में अनेक संयोग और वियोगोंके कारण दृढ रूपसे कर्म बंधते रहते हैं । उन कर्मोंके कारण नरक जाना पड़ता है । समस्त संसारमें घूमना पड़ता है ॥ ४३ ॥ स्त्री पुत्र कुटुम्बी राज्य शरीर सुख ये सब बातें मृत्युके समय साथ नहीं चलतीं इसलिये इनके साथ स्नेह करना वृथा है ॥ ४४ ॥ संसार में वे ही पुरुष धीर वीर हैं वे ही सुखी विद्वान और सुन्दर हैं जो कि दश प्रकार भोगोंका सर्वथा परित्याग कर मोची इच्छासे दिगम्बरी दीक्षा धारते हैं | १५ | जो मूढ पुरुष सदा स्त्रियोंमें आसक्त रहते हैं महा लोभी और महा मानी होते हैं वे शुद्रोंके समान महा निंय कीचड़से व्याप्त संसार
पनपत्र