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अहमिंद्रत्वमापन्नो मुक्तिस्म शियाच्चिव । किंखिदूमं जिनध्यानध्यायी प्रीतिकरोऽपरः ॥ २२ ॥ रूप्याद्रिदक्षिणा प्यां विद्यतेऽथ पुरं पर धरिपीतिलकाख्यं वे धारिण्यास्तिलकोऽनुस्वित् ॥ २३ ॥ तय नायकोऽत्यादिवेगाख्यः खेचराराधिपः । समास्ते बहुविधेनरूत्र स्य भार्या सुलक्षण भासुराः सुरश्च्युत्था श्रीधराच्या सुना तयोः ॥ २५ ॥ सम स्वयन्या पुरी तल बहुरत्नालकाभिधा । दर्शकाख्यः पतिस्तस्या वभूव स्मरविग्रहः ||२६|| तस्मै दत्ता सुता पित्रा श्रीधराख्या दृढतमी धारक थे। छठे नरक तकके पदार्थोंको जानने की शक्ति रखनेवाले अवधिज्ञान से शोभायमान थे । शुक् लेश्या धारक थे । तुषार - बरफ के समान उज्ज्वल थे। डोड़ हाथ- प्रमाण उनको शरीर था एवं वे मुनिराज सिंह चन्द्रके जीव प्रीतिंकर देव अहमिन्द्र हो मोक्षसे कुछ हो कम उर्ध्व वैकके सुखका आस्वादन करने लगे और हृदयमें सदा भगवान जिनेंद्रका ध्यान करते २ सुखसे वहां रहने लगे ॥ १६- २२ ॥
पृथ्वी के रूपाचल पर्वतकी दक्षिण श्रेणीमें धरणी तिलक नामका मनोहर पुर है जो कि अपनी अद्वितीय शोभासे पृथ्वीका तिलक ही जान पड़ता है ॥ २३ ॥ धरिणी तिलकपुरका स्वामी राजा आवेग था जो कि अनेक विद्याओंका पारगामी था। राजा अतिवेगकी स्त्रीका नाम सुलक्षणा था। महाशुक विमानसे आर्यिका रामदत्ताका जीव वह भास्कर देव चया और उसके गर्भ में आकर श्रीधरा नामकी पुत्री हुआ ॥ २४ ॥ २५ ॥
उसी रूपाचल पर्वतकी दक्षिण श्रेणीमें एक अलका नामकी दूसरी पुरी है जो कि नाना प्रकारके रत्नोंका स्थान है । उस पुरीका रक्षण करने वाला राजा दर्शक था जो कि कामदेव के समान परम सुन्दर था ॥ २६ ॥ जिस समय कन्या श्रीधरा दृढ स्तनी पूर्ण चन्द्रमाके समान मुखसे शोभायमान स्थूल नितम्व और कृश कटिकी धारक पूर्ण युक्ती होगई राजा अतिवेगने उसका
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