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कलेव फलभाषिणी । राजहंसगतिः श्यामास्वाकर्णायतलोचना ॥ ८॥ राजतेस्म महादेवी जयश्यामाऽभिधा रतिः। पाश पावती रम्भा रोहणी चा रविप्रिया । पूरमल्लेव रूपेण पीनवक्षोजराजिता । करणायकरी स्थलनितंबपरिमंडला ॥१०॥ परस्परमहाप्रेम बद्धचित्तौ सुखं भृशं । रतिक्रीड़ासमुद्रत भोजयामासतुस्तदा ॥ ११॥ एकदा श्रीदमाहय शक इत्यगदीद्वचः । त्रयोदशमनोधैशः कापि सोऽवतरिष्यति ॥ १२ ॥ अतस्त्वया विधातव्या शोभा श्रीपसनस्य च । गृहांगणे महावृष्टी रत्नानां जिनभक्तितः ॥१३जिनाबतरणादर्वाक् षण्मासाबधि श्रीधनेट । वसुधारां पातयामास रंगराजिविराजितः ॥१४॥ एकदा मृदुसत्तल्पे हंसठूलान्विते युते । पुष्पवाते: | कटिभाग अत्यन्त पतला मष्टिग्राह्य था स्थल नितंबांसे युक्त यो एवं अत्यन्त रूपवती थो॥ १०॥ उन दिनों दंपतियों में बड़ा भारी ओपसमें प्रेम था इसलिये वे रतिक्रीड़ासे जायमान सुखका बड़े आनन्दसे अनुभव करते थे ॥ ११ ॥
भगवान विमलनाथकी उत्पत्तिका समय निकट जान एक दिन इन्द्रने कुवेरको अपने पास | बुलाया एवं यह कहा-तेरहवें तीर्थकर भगवान विमलनाथ कपिला नगरीमें माता जयश्या
माके गर्भ; अवतरेंगे इसलिये तुम्हें कंपिला नगरीको हर एक प्रकारसे शोभायमान कर देना | चाहिये एवं भगवान जिनेन्द्र में प्रचण्ड भक्ति रखकर उनके महलके आंगनमें रत्नोंकी वर्षा करनी |
चाहिये ॥ १२ ॥ बस इन्द्रको आज्ञासे भगवान जिनेंद्रकी उत्पत्तिके छह मास पहिले ही कुवेरने नानाप्रकारके रत्नोंकी वर्षा करनी प्रारम्भ कर दी॥ १३ ॥
एक दिन नितंबरूपी तहोंसे शोभायमान, कठिन और पीन स्तनोंकी धारक वह माता जयश्यामा गर्भ ग्रहके अन्दर नानाप्रकारके सुगन्धित पुष्पोंसे व्याप्त एवं हंसोंको पंखोंकी उनके समान अत्यंत कोमल शय्यापर सो रही थी कि अचानक ही उसे रात्रिके पिछले पहरमें सोलह स्वप्ने दीख पड़े जो कि भगवान जिनेन्द्र स्वरूप कल्याणके सूचन करनेवाले थे और महामनोहर थे सबसे पहले स्वप्नमें उसने हाथी देखा जो कि पूर्ण चन्द्रमाके समान शुभ्र था। कुभस्थलोंसे |
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