SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ AAS. KARYANVI राजा 'सुखिनं कृत्वा गतः श्रोणिकसनेयौ। समाभाष्प शुभै|क्याजहार गिरं गुह॥ १०३ ॥ नो पुत्र ! स्थोयतामय महान् कोपोस्ति भूपतेः कुनो में प्रस्त्वक नहि ? कुमार! श्रु यतां वचः ॥ १०४ ।। कस्माश्चित्पुरुषात् राज्ञा श्रुतं निंद्य कदर्यमा । पुसनि: तरां भुक्त' तडक श्रेणिकेन च ॥ १०५॥ इति राको महाद्वयो बभूव तवकोपरि । तस्मात्क्षण विलंब्यो न राज्ञः कोपो हि दुर्गमः। १०६॥ विद्याविभववाणिज्यं व्यसनं वै विचित्रता । वादो घाणीविलासश्च भ्रश्यते राजकोपतः ॥ १०७॥ इति श्रुत्वा कुमारोऽसौ ka व्याजहार परं वचः । योज्यं न रक्ष्येत राज्य रक्ष्येत तैः कथं ॥ १०८ ॥ वदिष्यतीति लोकौघाश्चातुर्याभोजि मे लतः । विधीयते । कुमार ! राजगृह नगरमें इस समय तुम्हारा रहना उचित नहीं क्योंकि महराज तुम्हारे ऊपर इस समय अत्यंत कुपित हैं। मंत्रोको यह आश्चर्य भरी बात सुन कुमारने पूछा-महाराजका कोप मेरे ऊपर क्यों है ? मंत्रीने उत्तर दिया-महाराज उपश्रेणिकने किसी पुरुषके मुखसे यह निंदित और क्षुद्र बात सुनी है कि कुमार श्रेणिकने कुत्तोंका झठा खाया है, जीमते समय कुत्तोंके आजापर जिसप्रकार और कुमार उठकर खड़े हो गये वह नहीं उठा था-जीमता ही रहा था, वर तुम्हारे ऊपर यही राजाके कोपका कारण है। तुम्हे अब क्षण भर भी यहां नहीं रहना चाहिये क्योंकि यह कहावत प्रसिद्ध है कि ' राजाका क्रोध महा दुर्गम भयंकर होता है। राजाके क्रोधके सामने विद्या ऐश्वर्य व्यापार विशिष्ट भोजन चातुर्य वाद करना और सरस्वतीका विलास, सबके सब एक ओर किनारा कर जाते हैं रंचमात्र भी किसीका आदर नहीं होता। मंत्रीकी यह विचित्र वात सुन कुमारने मनोहर वचनोंमें यह उत्तर दिया- . भाई मंत्री : तुम्हारी बात मुझे युक्ति पूर्ण नहीं जचती। आश्चर्यकी बात है कि जो अपने भोजनकी रक्षा नहीं कर सकते वे राज्यकी रक्षा करने में कैसे समर्थ हो सकते हैं ? भाई ! सारासंसार यह कह रहा है कि मैंने बड़ी चतुरता और वीरतासे भोजन किया है और वास्तवमें मेरा उसी तरह भोजन करना उपयुक्त था परंतु वल्लभ--अपने प्रिय पुत्रके प्राणोंका हरण करनेवाला महाराजका यह कोप क्यों? कुमारका यह युक्तिपूर्ण उत्तर सुन विज्ञ भी मंत्रीसे कुछ भी जबाव न
SR No.090538
Book TitleVimalnath Puran
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Mythology
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy