Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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मुझे ऐसे उदारचित्त, मान्यपुरुष से व्यक्तिगत भेंट करने का प्रथम अवसर मिला अक्टूबर १९७३ में, जब मैं आचार्यकल्प १०८ श्री श्र तसागरजी महाराज के संघ के दर्शनार्थ निवाई गया। वहां आप समादरणीय पं० पन्नालालजी साहित्याचार्य, परम पूज्य १०८ श्री अजितसागरजी महाराज व पूज्य १०५ आर्यिका विशद्धमतीजी के साथ 'त्रिलोकसार' की मुद्रित प्रति का तीन हस्तलिखित प्रतियों से मिलान कर आवश्यक संशोधन कर रहे थे। इससे पूर्व जैनपत्रों के 'शंका-समाधान' स्तम्भ के माध्यम से पण्डितजी से परोक्ष परिचय ही था। 'त्रिलोकसार' के संशोधन-सम्पादन के समय पण्डितजी के अगाध ज्ञान, सूक्ष्म ग्रहण शक्ति तथा कार्य में तल्लीनता प्रादि गुणों से बहत प्रभावित हा । 40 पन्नालालजी ने 'त्रिलोकसार' की प्रस्तावना में सर्वथा उपयुक्त ही लिखा है कि
"श्री ब्र रतनचन्दजी मुख्तार पूर्वभव के संस्कारी जीव हैं। इस भव का अध्ययन नगण्य होने पर भी इन्होंने अपने अध्यवसाय से जिनागम में अच्छा प्रवेश किया है और प्रवेश ही नहीं, ग्रन्थ तथा टीकागत अशुद्धियों को पकड़ने की इनकी क्षमता अद्भुत है। इनका यह संस्कार पूर्वभवागत है, ऐसा मेरा विश्वास है। 'त्रिलोकसार' के दुरूह स्थलों को इन्होंने सुगम बनाया और माधवचन्द्र विद्यदेव कृत संस्कृत टीका सहित मुद्रित प्रति में जो पाठ छटे हए थे अथवा परिवर्तित हो गए थे, उन्हें आपने अपनी प्रति पर पहले से ही ठीक कर रखा था। पूना और ब्यावर से प्राप्त हस्तलिखित प्रतियों से जब इस मुद्रित टीका का मिलान किया तब श्री मुख्तारजी के द्वारा संशोधित पाठों का मूल्यांकन हुआ।"
निस्सन्देह, उच्चकोटि के सिद्धान्त ग्रन्थों का, आपका ज्ञान असाधारण था। जीवन के अन्तिम दिवसों में भी आप निरन्तर ज्ञान की साधना में तत्पर रहे थे । आपकी विशिष्ट स्मरणशक्ति हमारे लिए ईर्ष्या की वस्तु थी। स्वाध्याय करने-कराने के लिए आप प्रत्येक चातुर्मास में मुनिसंघों में जाते रहते थे। इन दिनों आप द्वारा संशोधित गोम्मटसार ( कर्मकाण्ड ) छपा है। 'लब्धिसार' व 'क्षपणासार' ग्रन्थों की गाथाओं का सरलार्थ व विशेषार्थ भी जयधवलादि ग्रन्थों के आधार पर आपने तैयार किया था। आप सच्चे अर्थों में सिद्धान्तभूषण थे।
आपने १-१२-७८ के पत्र में मुझे लिखा-"प्रतिदिन ८-१० घण्टे से कम स्वाध्याय करने में सन्तोष नहीं होता। शारीरिक स्वास्थ्य व गृहकार्य का भार ५-६ घन्टे से अधिक स्वाध्याय नहीं होने देता।....... हम दो ( पति, पत्नी) ही प्राणी हैं और दोनों की वृद्ध व रुग्ण अवस्था, किन्तु जिनवाणी का शरण प्राप्त है इसलिए कष्ट का अनुभव नहीं होता।"
- जिनवाणी के प्रति आपकी अटूट भक्ति व आस्था ही आपके जीवन का सम्बल रहा ।
'विद्या ददाति विनयम्' के आप साकार रूप थे। अगाध विद्वत्ता के बावजूद मान-अभिमान आपको रञ्चमात्र भी छ तक नहीं सका। पत्रोत्तर देना आपके स्वभाव का अंग था । कहीं से भी कोई शंका-समाधान या जिज्ञासा का पत्र आ जाए वह अनुत्तरित नहीं रहता था। 'त्रिलोकसार' का प्रकाशन-कार्य लगभग डेढ वर्ष तक चला। पज्य पण्डितजी ने मेरी हर शंका का समाधान करते हुए स्नेहसिक्त उत्तर दिये । पूज्य माताजी विशुद्धमतीजी के आदेशानुसार आपको जब मैंने ग्रन्थ में प्रकाशनार्थ अपना फोटो भेजने के लिए लिखा तो आपने २३-११-७४ को उत्तर दिया-"तीन पत्र मिले । मेरे पास मेरा कोई फोटू नहीं है और न इच्छा है । ख्याति व ख्याति की चाह पतन का कारण है। 'त्रिलोकसार' में कहीं पर मेरा नाम भी न हो, ऐसी मेरी इच्छा है ।" पण्डितजी की इस निस्पृह, निर्लेप वृत्ति की जितनी सराहना की जाए कम है।
व्रतनिष्ठा व चरित्र के प्रति आपकी दृढ़ आस्था सदैव अनुकरणीय है । आपने श्रावक के व्रतों का निर्दोषरीत्या पालन किया था। मेरे पूज्य पिताश्री पं० महेन्द्रकुमारजी पाटनी काव्यतीर्थ ( मदनगंज-किशनगढ़ ) ने जब
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