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( २१ )
जीवन की गहनता को पूरी तरह अनुभव करने के बाद वह इस तथ्य को समझ चुका होता है कि जीवन की समुज्ज्वल घटनाओं में भी शोक छिपा रहता है । इस बात से निराशा एवं निरुत्साह को हृदय में स्थान नहीं देना चाहिए । यह सन्तोष जीवन की असफलताओं के कारण नहीं होता बल्कि इसका प्रादुर्भाव उस समय होता है जब मनुष्य जीवन की अधिक संभावनाओं से परिचित हो चुका हो । ऐसे अवसर पर साधक अपनी अव्यक्त भावना अथवा विचित्र कीर्ति को शब्दों द्वारा प्रकट नहीं कर पाता । यह अमूर्त ज्योति किसी विशेष स्थान से न आने पर भी सब ओर संकेत करती रहती है । यह विचित्र भाव अवरुद्ध होने पर भी मनुष्य को प्रभावित करता रहता है ।
इस प्रकार एक प्रादर्शभूत् शिष्य गुरु के चरणों में तभी उपस्थित होता है जब वह जीवन को उत्साह, विवेक और सच्चरित्रता से व्यतीत कर चुका हो; वह उस दिव्य व्यक्ति के चरणों में जाकर निवेदन करता है, "स्वामिन्! खान-पान, जीवन-मरण, ग्रागम-व्यय, ग्राशा-निराशा वाले इस जीवन का क्या कोई महान् उद्देश्य है ? क्या यह जीवन सतत निराशा से पूर्ण एक गाथा ही है ? जीवन-मरण के दो छोरों में गतिमान होने वाला यह यात्री क्या हर्ष तथा शोक से अटे हुए मार्ग पर चलने के लिए ही है ? नाश, मृत्यु और नश्वरता से व्याकुल इस प्राणी के लिए क्या कोई मुक्ति का पथ भी है ? क्या कोई ऐसा महान् जगत है जिसमें सुकृत्यों द्वारा अधिक शान्ति तथा प्रसन्नता की प्राप्ति संभव हो सकती है ?" इस प्रकार के शिष्य को, जिसने पारस्परिक ज्ञान से कुछ वर्षों में परिपक्वता प्राप्त कर ली है, एक दिन गुरु अपने पास बैठाता और महान् उपनिषद्-ज्ञान देने की व्यवस्था निर्धारित करता है |
इस प्रकार उपनिषद् की वास्तविक उक्ति का अध्ययन करने से पहले यदि हम इस कथा की पृष्ठभूमि को भली- भान्ति समझ लें तो हमें इन प्राकस्मिक घोषणाओं के रहस्य तथा सन्देश का यथार्थ अभिप्राय सुगमता से मालूम हो जायेगा ।
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