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( २५८ ) हैं। कुछ पालोचकों ने इन दो विचारों को एक ही समझने की भूल की है। 'गौड़पाद का अगम शास्त्र' नामक पुस्तक में प्रोफेसर भट्टाचार्य ने तीव्र पालोचना करते हुए कहा है कि -"चतुर्थ पुस्तक (अध्याय ?) में गौड़पाद ने वेदान्त के विषय में कोई स्पष्ट विचार प्रकट नहीं किया है क्योंकि इसमें वेदान्त से सम्बन्धित कोई बात नहीं मिलती।"
___ इससे आपको घबराना नहीं चाहिए क्योंकि पालोचक भी भूल कर सकते हैं। अपनी पुस्तक 'भारतीय दर्शन के इतिहास' के पहले भाग के ४२३ पृष्ठ पर श्री दास गुप्त लिखते हैं कि--"श्री गौड़पाद ने बौद्धों की 'शून्य-वाद' एवं 'विज्ञान-वाद' की विचार-धाराओं को अपना लिया और फिर यह धारणा कर ली कि उपनिषदों द्वारा जिस सत्य-सनातन की व्याख्या की जाती है उसे इन (विचार-धाराओं) से सिद्ध करना संभव है ।" इस लेखक के विचार में श्री गौड़पाद एक बौद्ध हैं जिन्होंने प्रात्मा के मन्दिर में शास्त्रों की भाषा का प्रयोग करके बौद्ध मत का प्रचार किया । इन विचारों पर प्रत्यक्ष टीका. टिप्पणी करने का मेरा विचार नहीं है क्योंकि इस चौथी पुस्तक (अध्याय ४) के समाप्त होने तक आप स्वयं जान लेंगे कि प्रोफेसर दास गुप्त या प्रोफेसर भट्टाचार्य ने जो परिणाम निकाला है वह कहाँ तक सत्य है ।
चित्तं न संस्पृश्यत्यर्थं नार्था भासं तथैव च ।
अभूतो हि यतश्चार्थो नार्था भासस्ततः पृथक् ॥२६॥ मन बाह्य-संसार के पदार्थों के संपर्क में नहीं पाता और न ही वासनाओं का, जो स्थूल पदार्थों के रूप में प्रकट होती हैं, मन पर कोई प्रतिबिम्ब पड़ता है । यह बात हम इस कारण कह रहे हैं कि पदार्थों की सत्ता नहीं है और बाह्य-संसार में पदार्थों के रूप में प्रकट होने वाली वासनाएँ किसी रूप में मन मे पृथक् नहीं हैं।
बौद्धों में विज्ञान-वादी यह युक्ति देते हैं। यहाँ श्री गौड़पाद यथार्थवादियों की युक्तियों को अयुक्त ठहराने के लिए विज्ञान-वादियों के विचार
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