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( ३३३ । ऐसा व्यक्ति ही सनातन-सत्य को अनुभव करने की क्षमता रखता है और वह आत्मा की सत्ता में सुदृढ़ रहकर अपना जीवन व्यतीत करता है। जो प्रात्मा से एकरूप होकर आत्म-स्वरूप की अनुभूति करता है वही अमरत्व को प्राप्त कर लेता है।
आदिशान्ताः ह्यनुत्पन्नाः प्रकृत्यैव सुनिर्वृताः। सर्वे धर्माः समाभिन्ना अजं साम्यं विशारदम् ॥३॥
सभी जीव आदि से तथा अपने सहज स्वभाव के अनुसार शान्त, अजात तथा बन्धन-रहित रहते हैं। इनमें समानता तथा अभिन्नता के गुण पाये जाते हैं । अतः ये पृथक् (प्रतीत होने वाले) जीव वास्तव में आत्मा का स्वरूप हैं और अजन्मा होने के साथ सदा समान और परिशुद्ध रहते हैं ।
पिछले मंत्र में हमें बताया गया था कि साधक किस स्थिति में प्रात्मानुभूति की अवस्था को प्राप्त करता है । परमावस्था की प्राप्ति उस क्षण होती है जब वह अवर्णनीय तुष्टि का अनुभव करे अर्थात् जब उसे शेष कुछ भी प्राप्त करने की लालसा न रहे । इस मंत्र में यह कहा गया है कि पिछले मंत्र में जिस परिपूर्णावस्था की ओर संकेत किया गया है वह कोई नयी स्थिति नहीं बल्कि अपने वास्तविक स्वभाव की पहचान कर लेना है ।
इस आध्यात्मिक स्तर पर पहुंच जाने के बाद, जब कि मनुष्य अपने माप को प्रात्मा ही जान लेता है, उसे अपने सभी भौतिक आवरण जिनकी सहायता से वह संसार का प्रत्यक्षीकरण करता है, विशुद्ध आत्मा का ही स्वप्न अनुभव होने लगते हैं । समान-रूप आत्मा भेद-रहित है। जब मन मोर बुद्धि के स्वप्निल शून्य में से परम-तत्व बहिर्मुखी होता है तब इसका विकृत रूप दिखायी देता है जिसे अनेकता कहा जाता है ।
वैशारा तु वै नास्ति भेवं विचरतां सदा । भेद निम्नाः पृथग्वादस्तस्मात्ते कृपणाः स्मृताः ॥१४॥ जो व्यक्ति सदा पृथकता की भावना बनाये रखते हैं वे आत्म
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