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( ३३४ )
भूत् विशुद्ध प्रात्मा को कभी अनुभव नहीं कर पात । अतः जो नानात्व के पाश में बंधे रहते और जीव एवं पदार्थों की पृथक् सत्ता में विश्वास रखते हैं व संकीर्ण मन वाले कहे जाते हैं ।
जो कुछ ऊपर बताया गया है उससे यह बात निश्चित् रूप से स्पष्ट हो चुकी होगी कि आत्मानुभूति करने वाला नर- शिरोमणि अपनी जीवनमुक्तावस्था में किसी पृथकता की कल्पना नहीं करता और वह सर्वदा प्रत्येक स्थान पर परमात्म-तत्व की अपने भीतर तथा बाहिर अनुभूति करने लगता है । इस विभिन्नता में जिस एकता की सत्ता व्याप्त है उसमें लीन रहता हुआ वह परिपूर्णता का जीवन व्यतीत करता है । इस परम अनुभव की प्राप्ति होने के बाद जो कोई नानात्व में आस्था रखता है वह परिपूर्णता की दृष्टि से संकीर्ण मन वाला माना जाता है ।
श्री गौड़पाद ने यहाँ जिन शब्दों का उपयोग किया है उनसे यह पता चलता है कि भेद-निमग्न द्वैतवादी असाधारण रूप से अधिक प्रभावशाली होते हैं । प्रतः जब तक साधक राग-द्वेषादि के सभी बन्धनों को काट फेंकने तथा अपने मन एवं बुद्धि का अतिक्रमण करने को उद्यत नहीं होता तब तक वह परिपूर्णता की पराकाष्ठा तक नहीं पहुँच पाता । यह वही स्थिति है जिसका उपनिषदों के सिद्धाचार्यों ने प्रतिपादन किया है ।
साधक की क्षुद्र - हृदयता के कारण इस अनुभूति में क्षमता नहीं रहती | परम तत्व को अनुभव करने वाले व्यक्ति के लिए उदार हृदयता के साथ अपने मन एवं बुद्धि को विशाल करते रहना नितान्त आवश्यक है । यही आत्मा के क्षेत्र के लिए प्रवेश-पत्र है । इसलिए उन व्यक्तियों को कृपण कहना उपयुक्त है जो अपने वास्तविक स्वरूप से दूर रह कर पदार्थमय दृष्टसंसार के साथ बंधे रहते हैं ।
यह मंत्र उन शब्दों का स्मरण दिलाता है जो बृहदारण्यक उपनिषद् के तीसरे, आठवें और उन्नीसवें मंत्रों में महर्षि याज्ञवक्ल्य ने गार्गी को कहे थे
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