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( ३३२ ) वह घोर अभ्यास के योग्य नहीं समझा जाता। ऐसे विकसित बुद्धि वाले व्यक्ति के लिए नितान्त आवश्यक है कि वह अपने गुरु-द्वारा बताये गये शास्त्रोक्त ध्येय तथा लक्ष्य के विषय में पूरा पूरा सन्तोष प्राप्त करे । यदि उसके मन में ध्येय के सम्बन्ध में प्राचार्य द्वारा बताये गये तर्क-वितक म असाधारण सन्देह तथा असन्तोष बना रहे तो वह (विद्यार्थी) निष्ठा और सहृदयता से प्रात्मानुभूति के गहन मार्ग पर चलने में असमर्थ होता है ।
इसलिए सबसे पहले वेदान्ताभ्यासी अपने गुरु द्वारा दिये गये प्रवचनों को अपने बुद्धि-चातुर्य द्वारा समझने का यत्न न करे बल्कि शास्त्रों की पृष्ठ-भूमि को ध्यान में रखते हुए उसका समुचित मनन करे । अभ्यास के साधन को उपयोग में लाने से पूर्व उसे बुद्धि द्वारा सब बातों को भली भांति समझ लेना चाहिए । परिपक्व अनुभव के द्वारा अभ्यास करते रहने से जब वह पूर्ण तुष्टि तथा आनन्द की स्थिति को प्राप्त कर लेता है अर्थात् जिस समय उसे अधिक प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं रहती तभी वह अमरत्व का आनन्द अनुभव करने के योग्य समझा जाता है ।
यहां श्री गौड़पाद अध्यात्म मार्ग से सम्बन्धित तीन भागों की ओर संकेत कर रहे हैं। सब से पहले प्रात्मानुभवी एवं विद्वान् गुरु के संरक्षण में रह कर शास्त्र-वचनों का श्रवण, मनन तथा निदिध्यासन किया जाता है । इस यात्रा का दूसरा भाग तब प्रारंभ होता है जब छात्र सर्वोच्च ध्यान के क्षेत्र में प्रवेश करके तुरीयावस्था में सुदढ़ रहने तथा अपने मन एवं बुद्धि को लांघने में प्रयत्नशील रहता है। तीसरा भाग साधक द्वारा निज ध्येय की प्राप्ति को व्यक्त करता है। इस कृत्य-कृत्यता अथवा परमानन्द की स्थिति के अनुभव को केवल एक कसौटी है और वह यह है कि साधक लक्ष्य-हीन तुष्टि, परिपूर्णता तथा प्रानन्द को अनुभव करने लगता है । संस्कृत में इस परमावस्था को 'कृतकृत्यता' कहा जाता है जब साधक को इस बात का पूरा विश्वास हो जाता है कि मुझे जो कुछ समझना था वह मैने समझ लिया है। मैंने प्राप्तव्य की प्राप्ति कर ली है और शेष कुछ भी प्राप्ति नहीं करनी है।
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