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( ३४१ )
दुर्दर्शमतिगम्भीरमजं साम्यं विशारदम् । बुद्ध्वा पदमनानात्वं नमस्कुर्मो यथाबलम् ॥१००॥
परमात्म-स्थिति, जो स्वभाव से प्रजात, सनातन, सर्वज्ञ और नानात्व से रहित है, को अनुभव कर लेने के बाद हम इस ( सत्य सनातन ) को नमस्कार करते हैं ।
यह व्याख्या अब समाप्त होती है । परमात्म-तत्व के जो गुण यहाँ बताये गये हैं उनकी पूर्ण व्याख्या की जा चुकी है । 'आत्मा' की सबसे महान् अर्चना इसे अनुभव करना ही है। परमात्मा अथवा गुरु के प्रति हम अपनी असीम श्रद्धा का इसकी अनुभूति करने से ही प्रदर्शन कर सकते हैं । प्रार्थना तो इस (प्रार्थना) के लक्ष्य से सान्निध्य प्राप्त करने का प्रयासमात्र है । जब तक हममें मानसिक एवं बौद्धिक सामंजस्य नहीं हो पाता तब तक केवल प्रार्थना करते रहना साधक के अपने लिए हानिकारक तथा उसके पड़ोसियों की शान्ति को भंग करना है । इसलिए श्री गौड़पाद ने इस अन्तिम मंत्र में इस विचार को साधक के हृदय पटल पर बलपूर्वक अंकित किया है कि उस ( साधक) के द्वारा इस परम तत्त्व को अनुभव करने से अधिक वेदान्तद्रष्टानों की और कोई पूजा नहीं हो सकती ।
आत्मा में ही सर्व व्यापक एवं नानात्व से रहित परमात्म-तत्त्व की अनुभूति कर लेने पर श्रद्धा, प्रेम अथवा पूजा के कृत्यों की कोई आवश्यकता नहीं रहती । फिर भी परमात्म-तत्त्व के ज्ञान की स्तुति करते हुए स्वयं परिपूर्णावस्था को प्राप्त करने वाले श्री गौड़पाद ने इसी 'आत्मा' को नमस्कार किया है । यज्ञ यागादि की जिस विधि से कोई व्यक्ति आत्म-स्वरूप परमात्मा को नमस्कार कर सकता है वह अपने शरीर, मन तथा बुद्धि से पूर्ण विरक्ति प्राप्त करने के समान है जिससे वह अपने यथार्थ स्वरूप की पहचान कर ले । यह स्वरूप श्रात्म-सच्चिदानन्द है ।
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