________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( ३३६ ) भी अपने स्थान पर खड़ी रहती है । तब भी हमारे दैनिक व्यवहार में इस भाषा का उपयोग किया जाता है और हम उदय होने, अस्त होने, आकाश में धूमने, चमकने आदि गुणों का सूर्य में आरोप करते रहते हैं । हमें यह बात भली-भाँति विदित है कि सूर्य सर्वदा प्रकाशमान् रहने वाला एक उष्ण पिण्ड है।
__ जहाँ तक हमारे संसार तथा सामान्य व्यवहार का सम्बन्ध है हम सूर्य में इन गुणों का आरोप करते हैं, यद्यपि सूर्य के विचार से इन (गुणों) में कोई यथार्थता नहीं है । इसलिए विविध जीवों के सनातन तथा सर्वशक्तिमान् रहने पर भी हम अज्ञानियों को समझाने के उद्देश्य से महानाचार्यों ने इस प्रकार की भाषा का प्रयोग किया है "जीव अपने आत्मस्वरूप को जानने की क्षमता रखते हैं।" स्वप्न-द्रष्टा के दृष्टिकोण से भी हम यह कह सकते हैं कि वह अपनी जाग्रतावस्या को जानने की क्षमता रखता है।
क्रमतो न हि बुद्धस्य ज्ञानं धर्मेषु नापि (यि) नः । सर्वे धर्मास्तथा ज्ञानं नैतद् बुद्ध न भाषितम् ।।६।।
आत्मानुभूति वाले बुद्धिमान् पुरुष का ज्ञान पदार्थों से अछ ता रहता है । ऐसे ही सब जीव और ज्ञान किसी पदार्थ द्वारा लिप्त नहीं होते । “यह विचार भगवान् बुद्ध का नहीं ।”
इस मंत्र में श्री गौड़पाद ने समूची कारिका का सार देते हुए बुद्धिमान पुरुषों के यथार्थ अनुभव का स्वरूप वह विशुद्ध-ज्ञान कहा है जिसमें कोई पदार्थ विद्यमान नहीं रहता; वही ज्ञान 'परिपूर्ण' ज्ञान कहा जाता है जो आकाश की तरह सब में व्याप्त रहने पर भी निलिप्त रहता है ।
उपनिषदों में जिसको 'ज्ञान' कहा गया है वह मिथ्या संसार के नामरूप पदार्थों से लिप्यमान नहीं होता । यह विचार बौद्धों के इस सिद्धान्त से समता रखता प्रतीत होगा जिस के अनुसार दृष्ट-पदार्थों की कोई सत्ता नहीं है बल्कि ये विचारों की प्रतिछाया ही हैं । भगवान् गौड़पाद के जीवन-काल
For Private and Personal Use Only