Book Title: Mandukya Karika
Author(s): Chinmayanand Swami
Publisher: Sheelapuri

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Page 352
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३३७ ) समान है । उपाधि-रहित परम-ज्ञान ही विच्छिन्न होकर इस मोहक अनेकता की रचना करता प्रतीत होता है और इस संसार के माया जाल के प्रलोभन में फँस कर परमात्म स्वरूप जीवात्मा हर्ष - विषाद, सफलता-विफलता प्रादि के हास्यास्पद खेल करता रहता है । प्रणुमात्रेऽपि वैधर्म्ये जायमानेऽविपश्चितः । प्रसंगता सदा नास्ति किमुताऽऽवरणच्युतिः ॥७॥ यदि कोई व्यक्ति अज्ञानवश 'आत्मा' में अनेकता की लेशमात्र धारणा कर बैठता है तो वह उपाधि-रहित परम तत्व को प्राप्त करने में पूर्णरूप से असमर्थ रहता है । ( जब यह स्थिति है ) तो फिर आत्मा के वास्तविक स्वरूप का निरावरण करने का प्रश्न किस प्रकार उठ सकता है ? जाग्रत तथा स्वप्न अवस्था में कोई पारस्परिक सम्बन्ध नहीं है । स्वप्नावस्था में प्राप्त हुए धन का अल्पांश भी हमें जाग्रतावस्था में उपलब्ध नहीं हो सकता । ऐसे ही हम जाग्रतावस्था की परिस्थितियों को स्वप्नावस्था में प्राप्त नहीं कर सकते। जग जाने पर स्वप्न का लेशमात्र हमें विचलित नहीं कर सकता | इस प्रकार अपने मन एवं बुद्धि को लाँघ कर सनातन तत्त्व के क्षेत्र * में प्रवेश करने वाला व्यक्ति उपाधि-रहित परमात्मा को अनुभव करता है और उसमें अनेकता की रत्तो भर भ्रान्ति नहीं रहती । जब तक द्रष्टा तथा दृष्ट के पारस्परिक सम्बन्ध का तनिकमात्र भ्रम बना रहता है तब तक साधक सत्य-साधारण के तोरण द्वार तक ही पहुँच पाता है और उसे परमात्मा की अनुभूति नहीं होती । जब वह उपाधि-रहित विशुद्ध ज्ञान की अनुभूति में स्थिरता प्राप्त कर लेता है तब उसे पता चल जाता है कि उसके बीच किसी प्रकार का प्रावरण नहीं था बल्कि वह तो पूर्णतः स्व- प्रकाशित था और निज ज्ञान के कारण उसे ऐसा भ्रम होता रहा है । साधना द्वारा आत्मा की For Private and Personal Use Only

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