Book Title: Mandukya Karika
Author(s): Chinmayanand Swami
Publisher: Sheelapuri

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Page 351
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस ब्रह्म-शानी की परिपूर्णावस्था को एक साधारण व्यक्ति समझने की योग्यता नहीं रखता। संसार के इन योगियों की भाँति यह (ज्ञानी) जीवन के रंगमंच पर पाकर नाटक-लीला दिखाने में असमर्थ रहता है । यह न तो अपनी सिद्धियों का प्रदर्शन करता है और न ही इसमें कोई अद्भुत चमत्कार दिखाने की लालसा बनी रहती है। अजेष्वजमसंक्रान्तं धर्मेषु ज्ञानमिष्यते । यतो न क्रमते ज्ञानमसंगं तेन कीर्तितम् ॥६६॥ भिन्न-भिन्न जीवों का सार-तत्व एक मात्र विशुद्ध चेतना है जो बाह्य-संसार में जन्म न लेकर इससे अछ ती रहती है। किसी अन्य पदार्थ से कोई सम्बन्ध न रखने के कारण यह ज्ञान उपाधिरहित माना गया है। यहाँ नैयायिकों के इस सिद्धान्त की समीक्षा की जारही है कि प्रात्मा का विशेष गुण ज्ञान है और इस (ज्ञान) का तभी उदय होता है जब मनुष्य का मन किसी बाह्य-पदार्थ से सम्पर्क स्थापित कर लेता है। बाह्य-संसार केवल हमारे मन के मिथ्याभास का परिणाम.है-इस तथ्य को समझाने का श्रेय 'कारिका' को ही दिया जा सकता है । इस दृष्टि से विज्ञान-जगत या सामान्य-व्यवहार का बाह्य-संसार, जिसे हम 'ज्ञान' द्वारा अनुभव करते हैं, वास्तव में हमारे मन की प्रतिच्छाया है । जब मुझे किसी वस्तु का पता चलता है तब मैं उससे सम्बन्धित जानकारी का परिचय देता हूँ। एक सामान्य व्यक्ति परम-ज्ञान को न तो समझ पाता है और न ही इसकी अनुभूति कर पाता है क्योंकि वह प्रत्यक्ष संसार से अपने मन को पूरी तरह खेंचने की क्षमता नहीं रखता। केवल यह परम-ज्ञान यथार्थ है और समाधि-मग्न होने पर इसे अनुभव किया जाता है । पदार्थ-रहित ज्ञान ही प्रात्म-स्वरूप है और इसकी अनुभूति ही जीवन का एकमात्र लक्ष्य है । यह सूर्य के ताप एवं ज्योति के For Private and Personal Use Only

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