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( ३३५ )
"हे गार्गी ! जो व्यक्ति अक्षर-ब्रह्म को अनुभव किये बिना इस संसार से प्रयाण करता है वह 'कृपण' (संकीर्ण मन वाला) होता है।"
अजे साम्ये तु ये केचिद्भविष्यन्ति सुनिश्चिताः । ते हि लोके महाज्ञानास्तच्च लोको न गाहते ॥६५॥
जो व्यक्ति अजात तथा समान-रूप आत्मा में दृढ़ आस्था रखत है वे महाज्ञानी कहे जाते हैं। साधारण व्यक्ति उन्हें जान नहीं सकता।
प्रत्येक मनुष्य को जन्म-सिद्ध अधिकार प्राप्त है कि वह परमात्मा होने का दावा करे । इस दिशा में उसे केवल अपने मिथ्याभिमान का बलिदान करके उस आध्यात्मिक परमोच्च स्तर तक पहुँचना है जहाँ वह स्वयं अपना राज्याभिषेक करने में सक्षम होता है । ऋषियों की यह घोषणा स्वयं सिद्ध है । एक सामान्य व्यक्ति को धीरे धीरे उन्नत करके इस उच्च स्तर तक पहुँचाने के उद्देश्य से ही शास्त्रों द्वारा मनुष्य मात्र के लिए वर्ण तथा आश्रमों की व्यवस्था की गयी है; किन्तु उपनिषद्-साहित्य में किसी व्यक्ति द्वारा अपने वास्तविक स्वरूप को अनुभव करने के लिए जन्म, स्थिति, आयु आदि के बन्धनों पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता । इस परमानुभूति के लिए स्त्रियों को भी समान अधिकार प्राप्त हैं और उनके लिए किसी प्रकार की बाधा नहीं है । उपनिषद्-काल से पहले के साहित्य में ही स्त्रियों का साधारणतः तिरस्कार किया गया है किन्तु उपनिषदों की रचना के बाद से तो स्त्री-समाज की योग्यता तथा प्राध्यात्मिक क्रियाशीलता की स्तुति की गयी है ।
ऋषियों ने इस दिशा में स्त्रियों को समान अधिकार देते हुए उपनिषद्साहित्य के विशिष्ट स्थानों में भारत की महानात्मा महिलाओं द्वारा उच्च विचार मखरित किये हैं। भगवान् गौड़पाद हिन्दु-संस्कृति की उदार-हृदयता का विशेष उल्लेख करते हुए कहते हैं कि प्रात्मानुभूति वाला व्यक्ति बिना किसी भेद-भाव अपने जीवन के ध्येय को प्राप्त कर लेता है ।
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