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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३३४ ) भूत् विशुद्ध प्रात्मा को कभी अनुभव नहीं कर पात । अतः जो नानात्व के पाश में बंधे रहते और जीव एवं पदार्थों की पृथक् सत्ता में विश्वास रखते हैं व संकीर्ण मन वाले कहे जाते हैं । जो कुछ ऊपर बताया गया है उससे यह बात निश्चित् रूप से स्पष्ट हो चुकी होगी कि आत्मानुभूति करने वाला नर- शिरोमणि अपनी जीवनमुक्तावस्था में किसी पृथकता की कल्पना नहीं करता और वह सर्वदा प्रत्येक स्थान पर परमात्म-तत्व की अपने भीतर तथा बाहिर अनुभूति करने लगता है । इस विभिन्नता में जिस एकता की सत्ता व्याप्त है उसमें लीन रहता हुआ वह परिपूर्णता का जीवन व्यतीत करता है । इस परम अनुभव की प्राप्ति होने के बाद जो कोई नानात्व में आस्था रखता है वह परिपूर्णता की दृष्टि से संकीर्ण मन वाला माना जाता है । श्री गौड़पाद ने यहाँ जिन शब्दों का उपयोग किया है उनसे यह पता चलता है कि भेद-निमग्न द्वैतवादी असाधारण रूप से अधिक प्रभावशाली होते हैं । प्रतः जब तक साधक राग-द्वेषादि के सभी बन्धनों को काट फेंकने तथा अपने मन एवं बुद्धि का अतिक्रमण करने को उद्यत नहीं होता तब तक वह परिपूर्णता की पराकाष्ठा तक नहीं पहुँच पाता । यह वही स्थिति है जिसका उपनिषदों के सिद्धाचार्यों ने प्रतिपादन किया है । साधक की क्षुद्र - हृदयता के कारण इस अनुभूति में क्षमता नहीं रहती | परम तत्व को अनुभव करने वाले व्यक्ति के लिए उदार हृदयता के साथ अपने मन एवं बुद्धि को विशाल करते रहना नितान्त आवश्यक है । यही आत्मा के क्षेत्र के लिए प्रवेश-पत्र है । इसलिए उन व्यक्तियों को कृपण कहना उपयुक्त है जो अपने वास्तविक स्वरूप से दूर रह कर पदार्थमय दृष्टसंसार के साथ बंधे रहते हैं । यह मंत्र उन शब्दों का स्मरण दिलाता है जो बृहदारण्यक उपनिषद् के तीसरे, आठवें और उन्नीसवें मंत्रों में महर्षि याज्ञवक्ल्य ने गार्गी को कहे थे For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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