Book Title: Mandukya Karika
Author(s): Chinmayanand Swami
Publisher: Sheelapuri

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Page 338
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३२३ ) 'ब्रह्म' को अनुभव करने के बाद प्रात्मा तथा परमात्मा में एकरूपता का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने वाला यह योगी सदा विनय के आभूषण से अलंकृत रहता है । शरीर, मन तथा बुद्धि के स्तर पर दूसरों के प्रति नम्रता को व्यवहार में लाना ही 'विनय' है । इसका अर्थ प्रात्म-समर्पण नहीं है । यह तो एक व्यक्ति के परिपूर्ण-तत्व में लीन हो जाने की क्रिया है। प्रात्मा में रमण करने वाले मनुष्य के लिए 'विनय' एक मानसिक प्रवृत्ति है क्योंकि विशुद्ध एवं सर्व-शक्तिमान् प्रात्मा के दृष्टि-कोण से शरीर, मन और बुद्धि तो सत्यसनातन परमात्मा में प्रारोपमात्र ही हैं। इस कृत्रिम वृथाभिमान को धारण करके इसे मिथ्या नाम-रूप संसार द्वारा बल-पूर्वक मनवाने का प्रयास विनय-हीनता का सूचक है। अहंकार, प्रभुता, शत्रुता और लड़ाई झगड़ों की उत्पत्ति उन जीवों से होती है जो अपना ही मान और धन बढ़ाने के संघर्ष में अपने समय का दुरुपयोग करते है । सभी प्रकार के वैमनस्य से दूर रहने वाला सत्पुरुष , जिसकी हृद्तंत्री दिव्य स्वर एवं लय से झंकृत होती रहती है, इन अवगुणों से सर्वथा दूर रहता है । यथार्थ एवं सर्व-व्यापक तत्व में मग्न रहने के कारण कोई मानसिक विक्षेप नहीं रह सकता । वह स्वभाव से ही शान्त होता है । भारत में यह महान् उक्ति बड़ी प्रचलित है—“पर्वत चलायमान हो सकते हैं किन्तु परिपूर्ण व्यक्ति के मन में किसी प्रकार की तरंग नहीं उठ सकती।" आत्मा में केन्द्रित रह कर यह धर्मात्मा परम-सुख का अनुभव करता हुआ एकमात्र सत्ता के विशद्ध ज्ञान से उदय होने वाले परमानन्द पर प्रभत्व रखता है । इस पर स्वप्निल सुखों के क्षणिक हर्ष के लिए तुच्छ विषयों के पीछे वह क्यों भागा फिरे ? फिर कभी वह इन्द्रियों के जाल में नहीं फंसेगा । उसकी इन्द्रियाँ किसी भी अवस्था में अपनी तृप्ति के लिए पदार्षमय संसार की ओर नहीं भागेंगी । जिस व्यक्ति ने जी भर कर भोजन कर लिया है क्या वह फिर बचे हुए अन्न के टुकड़ों को देख कर खाना चाहेगा ? परिपूर्ण आनन्द के द्वारा तृप्त होने वाला सिद्ध पुरुष किसी पदार्थ की लालसा नहीं रखता । वह अपनी इन्द्रियों को अपने वश में रखता है । For Private and Personal Use Only

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