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है। हमारा लौकिक जीवन इन तीन अवस्थानों के सामूहिक अनुभव से ही बनता है । वेदान्त द्वारा प्रतिपादित 'साधन' में सफलता प्राप्त करने का अर्थ इस आत्म-तत्त्व को जानना है जो इन तीन अवस्थाओं के अनुभवों का ज्ञान देता तथा इन्हें प्रकाशमान करता रहता है।
वेदान्त कहता है कि यह 'महान्' सत्य और परस्पर वाद-विवाद करती रहने वाली सभी विचार-धाराओं के परम-विषयक दृष्टिकोण इन्हीं तीन चेतनावस्थाओं से एकरूपता रखते हैं। इन तीनों को लाँघ लेने पर हम वेदान्त के साम्राज्य में प्रवेश करते हैं। अद्वैत एवं अजात 'आत्मा' के परमज्ञान की इस स्थिति को 'तुरीय' कहते हैं । आत्मानुभव करने वाले सिद्ध पुरुषों ने अज्ञान-पूर्ण स्थूल पदार्थों से ज्ञेय परमात्म-तत्त्व की अनुभूति तक जो कुछ बताया है उसे साहित्य में 'ब्रह्म-विद्या' कहा गया है ।
ज्ञाने च त्रिविधे ज्ञेये क्रमेण विदिते स्वयम् । सर्वज्ञाता हि सर्वत्र भवतीह महाधिपः ॥८६॥
जब ज्ञान तथा त्रिविध ज्ञेय को क्रमानुसार जान लिया जाता है तो परम-विवेक वाला ऐसा व्यक्ति सर्वत्र तथा इस जीवन में ही ज्ञानावस्था को प्राप्त कर लेता है। ___'कारिका' का यह सुन्दर एवं रहस्य-पूर्ण मंत्र वास्तव में अनुपम है । इसमें उस जीवन-मार्ग अथवा अभ्यास को अोर संकेत किया गया है जिसके द्वारा 'माण्डूक्योपनिषद्' में वर्णित परिपूर्णता को प्राप्त करने की विधि समझायी गयी है । साधक को सब से पहले यह परामर्श दिया जाता है कि वह अनुभव-कर्ता या जीवात्मा को शनैः शनैः जान ले जो कभी 'जागने-वाला' कभी 'स्वप्न-द्रष्टा' और किसी समय 'घोर निद्रा लेने वाला' कहा जाता है । उसे यह भी सलाह दी जाती है कि वह इन तीन क्रियाक्षेत्रों के मिथ्या व्यापारों में कार्य-व्यस्त रहने का पूरा ज्ञान प्राप्त करे ।
उपनिषद्-खण्डों में जब हमने उपासना-विधि समझाते हुए ॐ की 'अ', 'उ' तथा 'म्' मात्राओं पर क्रमशः 'नागने वाले', स्वप्न-द्रष्टा और
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