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( ३२७ ) 'निद्रा-मग्न' व्यक्ति का आरोप करने की मंत्रणा दी थी तब इस बात पर भी पूरा प्रकाश डाल दिया गया था।
इस उपाय को हमारे मन में पूरी तरह अंकित करने के लिए श्री गौड़पाद ने यहाँ इसका पुनरुल्लेख किया है । एक कट्टर वेदान्तवादी के लिए 'साधना' सबसे अधिक महत्त्व रखती है क्योंकि वह किसी रूप अथवा गुणविषयक वस्तु पर अपना ध्यान नहीं जमाता; जो व्यक्ति विवेक द्वारा निरन्तर अभ्यास करता रहता है वह अन्तस्थित जीवात्मा के पूर्ण रूप से परिचित हो जाता है जो जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्त अवस्था में विविध नाट्य-क्रियाओं की रचना करता रहता है । अन्त में यह (जीव) स्वयं विशुद्ध 'तुरीयावस्था' को प्राप्त कर लेता है । इन तीन क्रिया-क्षेत्रों का पूरा ज्ञान प्राप्त करने का यह अभ्यास भी एक असाधारण प्रशिक्षण है जिससे साधक अधिक तीक्ष्ण-बुद्धि एवं विकास से सम्पन्न होता है। उसका मन स्थिर होता है और उसकी बुद्धि असाधारण रूप से प्रखर हो जाती है । विशेष बुद्धि-कौशल द्वारा विभूषित व्यक्ति इन तीन क्षेत्रों के अनुभव-
कर्ता को जानने के लिए जब उद्यत होता है तो उसे इन तीन अवस्थाओं के सामान्य हर का पूरा पता चल जाता है । इसे ही चतुर्थावस्था या परमात्म-स्थिति कहा जाता है।
___जो वेदान्ती 'ध्यान' करने का सतत अभ्यास करता रहता है वह इसी जन्म में परमात्म-स्थिति को अविलम्ब प्राप्त कर लेता है । परिपूर्णता की प्राप्ति मृत्यु से पहले हो सकती है। इसे शीघ्र अनुभव करना प्रत्येक प्राणी का जन्म-सिद्ध अधिकार है । इसके लिए कोई अवधि नियत नहीं की जा सकती । साधक जितनी निष्ठा तथा परायणता से इस दिशा में प्रयत्नशील होता है उतनी शीघ्रता से उसे सफलता मिलती है। परिपूर्णता के गढ का नियमितता, निष्ठा और सद्विवेक की आधार-शिला पर निर्माण होता है।
विशुद्ध ज्ञान की इस तुरीयावस्था को प्राप्त कर लेने के बाद आत्मानुभव प्राप्त करने वाला सत्पुरुष आत्मा के स्वरूप को धारण कर लेता है और इसके सहज गुण से युक्त हो कर प्रत्येक प्राणी में सब को देखने लगता है।
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