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( ३२६ )
आध्यात्मिक परिपूर्णता के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहने के कारण इस मंत्र को व्यापक रूप से व्यवहार में लाना हमारे लिए इतना आवश्यक नहीं है । मैं तो केवल आपका ध्यान इस ओर आकर्षित करने के लिए यह बात कह रहा हूँ । ऐसा कभी न सोचिए कि भारत के प्राचीन दार्शनिक इतने सत्वहीन थे कि वे भौतिक संसार में सफल जीवन व्यतीत करने के लिए कोई व्यवस्था न कर सके । हमारे देश के उतावले आलोचक, विशेषतः इस युग के वे मनुष्य जिन्हें न तो अपनी संस्कृति का ज्ञान है और न ही पश्चिमी सभ्यता के गुणों से परिचय है, यह धारणा रखते रहे हैं । संसार के सांस्कृतिक व्यवहार में व्यर्थ एवं हानिप्रद बातों से अपने मन तथा बुद्धि को पूरी तरह दूषित करते रहने के कारण हम जीवन की पवित्रता तथा स्वास्थ्य से हाथ धो बैठे हैं और सांस्कृतिक प्राधि-व्याधियों से शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक सन्तुलन भी खो चुके हैं ।
हमारा हत व्यक्तित्व हमारे हृदय एवं बुद्धि को कलुषित कर चुका है । प्रस्तुत मन्त्र से हमें कम से कम यह बात समझ लेनी चाहिए परम आदर्शवाद की व्याख्या करते हुए भी यहाँ श्री गौड़पाद उस परिपाटी की व्यवस्था कर रहे
जिसको समुचित रूप से व्यवहार में लाने से यह पीड़ित संसार सुख एवं शान्ति के व्यापक युग में प्रवेश कर सकता है । अब हम इसके दार्शनिक पहलू पर प्रकाश डालेंगे ।
तुरीयावस्था या परमात्म-स्थिति के जिस ध्येय की ओर हमने संकेत किया है उसे प्राप्त करने के लिए हमें न केवल इस चतुर्थ अवस्था का सैद्धान्तिक रूप जानना होगा बल्कि सतत् प्रयत्न द्वारा जीवन के उन मूल्यों से बचाव भी करना होगा जो उसके लिए घातक सिद्ध हो सकते हैं । इसके साथ अभ्यास तथा पूर्ण श्रद्धा द्वारा 'कारण' के त्याग और सत्य की स्थापना के लिए योग-मार्ग को अपनाना होगा । अभ्यास द्वारा विकसित होने वाले जीवनमूल्यों का हमें पता लगाना होगा । श्रात्म- क्रिया द्वारा अपने हृदय की बासना रूपी ग्रन्थियों को खोलने का ढंग भी हमें जानना होगा ।
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