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( ३२८ ) हेयज्ञेयाप्यापाक्यानि विज्ञेयान्यग्रयाणतः ।
तेषामन्यत्र विज्ञेयादुपलम्भस्त्रिषु, स्मृतः ॥१०॥
सर्व-प्रथम इन चार बातों को जान लेना चाहिए-(१) हेय पदार्थ; (२) अनुभव करने वाली वस्तु; (३) ग्रहण करने योग्य पदार्थ और (४) प्रबल कुवासनाओं से मोक्ष पाना। __यह तथ्य इस विरोधाभास का सूचक है कि निज ध्येय प्राप्त करने की उत्कण्ठा रखने वाला साधक सब कुछ स्मरण रखता है और साथ ही वह अपनी सामान्य बुद्धि का उपयोग करना भूल जाता है । इस प्रकार के विचारों ने धर्म को निस्तेज बना दिया है । अतः गरु का यह परम कर्तव्य है कि वह अपने शिष्यों को न केवल सर्वोत्कृष्ट दार्शनिक तत्त्वों का ज्ञान दे बल्कि समय समय पर उन्हें सामान्य-बुद्धि-विषयक विचारों को स्मरण रखने में भी सहायक हो ताकि वे (शिष्य) मढ़ता तथा विवेक-हीनता के पाश में फंस कर पथ-भ्रष्ट न हो जाएँ । जीवन के हर गुह्य उद्देश्य की प्राप्ति के लिए-चाहे वह हमारे पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय अथवा अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्रों से सम्बन्ध क्यों न रखता हो-मनुष्य अथवा नर-समदाय के लिए इन चार बातों से पूरी तरह परिचित होना अनिवार्य है । उन्हें यह जानना चाहिए कि उनका ध्येय क्या है और उसकी प्राप्ति में बाधक कौन-कौन से मूल्य हैं। उन्हें इस बात की भी जानकारी होनी चाहिए कि उनके उद्देश्य की पूत्ति के लिए किन किन बातों का होना आवश्यक है । अन्त में उनको ऐसे सांस्कृतिक दोषों का भी निश्चित रूप से पता लगाना चाहिए जिन्हें दूर करने के लिए निरन्तर अभ्यास करते रहना आवश्यक है।
वास्तव में जीवन के समूचे प्रबन्ध एवं स्वतन्त्रता के घोषणा-पत्रोंअर्थात् उन्नति और शासन-शालियों के कार्य-क्रम-की व्यवस्था करते हुए हमें इन चार बातों का ध्यान रखना होगा । जितनी मात्रा में किसी एक बात की अवहेलना की जायेगी उतनी मात्रा में सफलता प्राप्त करना कठिन होगा। जीवन के जिस आयोजन में सफलता के इन चार साधनों को कुशलता से व्यवहार में लाया जायेगा उसमें उतना ही अधिक हम अग्रसर हो सकेगे ।।
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