Book Title: Mandukya Karika
Author(s): Chinmayanand Swami
Publisher: Sheelapuri

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Page 340
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३२५ ) बौद्ध-मत के इन दार्शनिक शब्दों का उल्लेख करके श्री गौड़पाद के आलोचक अपने इस हास्यास्पद सिद्धान्त की पुष्टि करते हैं कि 'कारिका' का रचयिता धर्म से बौद्ध था । जिस कुशल एवं सुपात्र विद्यार्थी ने भगवान् शंकराचार्य के भाष्य सहित इस कारिका का गहन अध्ययन किया है वह इस युक्ति को कभी नहीं मानेगा । किसी विचारज्ञ द्वारा प्रयुक्त शब्दों को अन्य विचारों वाला कोई दूसरा व्यक्ति उपयोग में ला सकता है यद्यपि वह उसका किसी दूसरे प्रसंग में उल्लेख करता है । बौद्ध विद्वानों ने स्वयं इस प्रथा को अपनाया है । उन्होंने सभी परिभाषाएं प्राचीन साहित्य से लीं और उनका अपने ग्रन्थों में प्रयोग किया यद्यपि इनका अर्थ तथा सन्दर्भ कुछ अंश में भिन्न था। 'लौकिक' तथा 'शुद्ध-जौकिक' अवस्था में द्रष्टा का दृष्ट-पदार्थ से संपर्क रहता है किन्तु इनमें यह भेद रहता है कि जाग्रतावस्था में द्रष्टा को स्थूल पदार्थ यथार्थ प्रतीत होते हैं जब कि स्वप्नद्रष्टा को वे पदार्थ दिखायी देते हैं जो वास्तविक रूप से स्वप्नाच्छादित मन के विचार ही होते हैं । प्रवस्त्वनुपलम्भं च लोकोत्तरमिति स्मृतम् । ज्ञानं ज्ञेयं च विज्ञेयं सदा बुद्धः प्रकीर्तितम् ॥८॥ विद्वान एक और चेतनावस्था को मानते हैं जिसमें बाह्यपदार्थों तथा अन्तर्जगत के विचारों से कोई सम्बन्ध नहीं रहता । यह अवस्था सभी लौकिक अनुभवों से परे है । विद्वानों के द्वारा इन तीनों (ज्ञान, पदार्थ-ज्ञान और ज्ञातव्य) को परम-तत्त्व कहा गया है। बौद्धों की 'योगचर' विचार-धारा के अनुसार स्वप्न-रहित सुप्तावस्था को 'लोकोत्तर' कहा गया है। इस अवस्था में निद्रा-ग्रस्त व्यक्ति न तो जाग्रतावस्था के पदार्थों को अनुभव करता है और न ही उसे स्वप्न के विचारों से उत्पन्न होने वाले रूप दिखायी देते हैं और सब से बड़ी बात यह है कि वह (निद्रा-ग्रस्त मनुष्य) किसी वस्तु के संसर्ग में आने की अनुभूति नहीं करता । इन तीन अवस्थाओं में ही सभी पदार्थों का ज्ञान भरा रहता For Private and Personal Use Only

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