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( ३२४ ) अज्ञानी अपनी इन्द्रियों द्वारा विषयों में भटकते फिरते हैं क्योंकि उनमें विषय-भोग की मिथ्या भावना बनी रहती है । जब इस परिभ्रान्त जीव को यह ज्ञान हो जाता है कि विषय-पदार्थ हमारी इन्द्रियों का केवलमात्र विस्तृत रूप हैं, इन्द्रियाँ मन के ही स्थूल अवयव हैं और हमारा मन आत्मा में प्रारोपमात्र है अर्थात् जब वह अपने सुख-निधान 'आत्मा' को जान लेता है तब उसे विषय-भोग की सांकरी गलियों में भटकने की कोई आवश्यकता नहीं रहती।
आत्मानुभति वाला मनुष्य स्वभाव से ही इन्द्रियों को अपने वश में रखता है—यह बात इस लिए कही गयी है कि 'ज्ञान-योग' तथा 'हठ-योग' में तुलना की जा सके । ज्ञान-योग में इन्द्रियों को विवेक तथा अभ्यास द्वारा नियंत्रण में लाया जाता है जब कि हठ-योग में प्राणायाम द्वारा 'प्राण' को इन्द्रियों की सहायता से भीतर की ओर खींचा जाता है । आत्मानुभव के कारण इन्द्रियों पर स्वाभाविक एवं पूर्ण नियंत्रण श्वास-निरोध द्वारा क्षणिक, अस्वाभाविक, अपूर्ण और दुष्कर इन्द्रिय दमन से कहीं अधिक प्रभावशाली है ।
सवस्तु सोपलम्भं च द्वयं लौकिकमिष्यते ।
अवस्तु सोपलम्भं च शुद्ध लौकिकमिष्यते ।८७॥
वेदान्त द्वारा वह लौकिक जाग्रतावस्था मान्य है जिसमें पदार्थों तथा विचारों के संसर्ग से प्रकट होने वाली अनेकता का ज्ञान रहता है । यह (वेदान्त) एक अन्य सूक्ष्मावस्था को भी मानता है जिसमें विचारों के अवास्तविक पदार्थों में लिप्यमान रहने के कारण अनेकता की अनुभूति होती रहती है ।।
प्रस्तुत और आगे आने वाले मंत्र में श्री गौड़पाद ने बौद्धों की 'गोचर' विचार-धारा के प्रसिद्ध शब्दों का उपयोग किया है । इन बौद्धों की भाषा में जाग्रतावस्था को 'लौकिक' तथा स्वप्नावस्था को 'शुद्ध-लौकिक' कहा जाता है। 'माण्डूक्योपनिषद्' में पहले ही इन दो अवस्थाओं की व्याख्या तथा परिभाषा की जा चुकी है।
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