Book Title: Mandukya Karika
Author(s): Chinmayanand Swami
Publisher: Sheelapuri

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Page 336
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३२१ ॥ प्राप्य सर्वज्ञतां कृत्स्नां ब्राह्मण्यं पदमद्वयम् । अनापन्नादिमध्यान्तं किमतः परमीहते ॥५॥ जब वह (साधक) परिपूर्ण, अद्वैत, आदि-मध्य-अन्त रहित ब्रह्मावस्था को प्राप्त कर लेता है तब उसे और किस पदार्थ की आकांक्षा बनी रह सकती है ? जीवन के ज्योतिर्मान परम-ध्येय को प्राप्त कर लेने के बाद आत्मा में रमण करते हुए साधक सर्व-शक्तिमान् एवं सर्व-व्यापक अनादितत्व में लीन हो जाता है । तब आत्मा का प्रात्मा में विलय हो जाता है । आत्मानुभूति वाले इस पारंगत विद्वान् को श्री गौड़पाद 'ब्राह्मण' कहते हैं। आजकल का समाज इस परम सिद्धान्त से कितनी दूर चला गया है, इसका धर्मान्धता के शिकार होने वाले व्यक्तियों से पता चलेगा जो यज्ञोपवीतभारी और अन्य हिन्दू भाइयों में भेद-भाव रखते हैं। ब्राह्मण-कुल में जन्म लेने वाले व्यक्ति को ही प्राजकल ब्राह्मण माना जाता है । क्या कभी किसी डाक्टर के पुत्र को डाक्टर माना जा सकता है ? वंश-परम्परा के बने रहने से अनुकल प्रवृत्तियाँ तथा मानसिक विकास भले ही पाये जायँ किन्तु वास्त. विक उन्नति किसी व्यक्ति की शिक्षा और व्यवहार-कुशलता आदि पर निर्भर रहती है। इसलिए एक इंजीनियर के पुत्रों का डाक्टर बनना संभव है । एक 'शूद्र' का पुत्र उचित प्रयास तथा व्यवहार-कुशलता से 'ब्राह्मण' बन सकता । शास्त्रों ने वर्ण-व्यवस्था को कभी संकुचित दृष्टि से नहीं माना और न ही संकीर्णता द्वारा विषेला बना कर इसे नष्ट तथा छिन्न-भिन्न करने का कभी विचार किया गया है। श्री गौड़पाद यहाँ प्रश्न करते हैं कि-'आत्मा से साक्षात्कार कर लेने पर ब्राह्मण के लिए और क्या आकांक्षा बनी रहेगी ?' इस प्रश्न का उत्तर स्पष्ट है अर्थात् इसके बाद कोई इच्छा अथवा आकाँक्षा नहीं रहती। ऐसा व्यक्ति अपने आन्तरिक प्रानन्द में मग्न रहता है। सब कुछ उपलब्ध रहने के कारण वह किसी वस्तु के लिए इच्छा, आशा तथा लालसा नहीं रखता और किसी पदार्थ के न मिलने पर दुःखी नहीं होता । साधना में अभ्यस्त For Private and Personal Use Only

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