Book Title: Mandukya Karika
Author(s): Chinmayanand Swami
Publisher: Sheelapuri

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Page 335
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३२० ) जैन मतावलम्बी कहते हैं कि प्रात्मा की सत्ता है भी और नहीं भी । उनके विचार में आत्मा शरीर से अलग तो है किन्तु यह उसके आकार के बराबर है । यह शरीर के साथ जन्म लेता और इसके साथ ही समाप्त हो जाता है । इस तरह उनकी धारणा के अनुसार आत्मा है भी और नहीं भी (अस्ति, नास्ति)। निहिल मत के बौद्ध आत्मा की सत्ता में कोई विश्वास नहीं रखते । वे कहते हैं कि सब प्राणी और पदार्थ नष्ट हो जाते हैं । इसलिए वे पूर्ण निषेध (नास्ति, नास्ति) को ही परम-तत्व मानते हैं। ऊपर बताये गये विचार अथवा विशेष-गुण प्रात्मा से सम्बन्धित हैं, जैसे 'अस्ति', 'नास्ति', 'अस्ति-नास्ति' और 'नास्ति-नास्ति' । अनेक दार्शनिकों ने प्रतीयमान आत्मा को स्थायी, अस्थायी और न स्थायी तथा न अस्थायी कह कर इस (आत्मा) का लक्षण बताया है । इस कारण श्री गौड़पाद इन मतावलम्बियों के विचारों को अपरिपक्व मन द्वारा प्रतिपादित मानते हैं। कोटयश्चचतत्र एतास्तु ग्रहैर्यासां सदाऽऽवृतः । भगवानाभिरस्पृष्टो येन दृष्ट: स सर्वदृक् ॥४॥ आत्मा के गुण-स्वभाव से सम्बन्धित ये चार वैकल्पिक सिद्धान्त हैं । इनमें आसक्त रहने के कारण आत्मा की सत्ता की अनुभूति नहीं होती। आत्मा को वस्तुतः वही व्यक्ति अनुभव करता है जो इसे इन सब (सिद्धान्तों) से अछूता मानता है। श्री गौड़पाद यहाँ साधक को यह परामर्श देते हैं कि वह आत्मा की इन प्रारम्भिक परिभाषाओं को स्वीकार न करे और अभ्यास एवं क्रिया द्वारा इनसे अछूता रहे । सर्व-शक्तिमान् आत्मा के सहज तथा विशुद्ध स्वरूप को अनुभव करता हुआ वह इसे सभी दृष्ट-पदार्थो, मन अथवा बुद्धि का मूलभाधार माने । हमारे भीतर रहने वाली मन की गम्भीरता-पूर्ण स्थिरता एवं निस्तब्धता ही सर्व-ज्योतिर्मान् प्रात्मा का अधिष्ठान है । यह आत्म-शान ही हमारा वास्तविक स्वरूप है। For Private and Personal Use Only

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