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( ३१८ )
में प्रपेक्षत: बहुत कम विक्षेप होता है जिससे कोई प्राणी गहरी निद्रा से उठ कर किसी बाधा - प्रतिबाधा की शिकायत नहीं करता । सुषुप्तावस्था शाश्वत् सुख की अनुभूति मालूम देती है क्योंकि उस समय हमारे मन को विक्षिप्त करने के साधन विद्यमान नहीं होते । जहाँ कोई विक्षेप न हो वहाँ परम सुख का साम्राज्य स्थापित रहता है; किन्तु दुर्भाग्य से सुषुप्तावस्था में किसी पदार्थ द्वारा आकर्षित न होने पर भी हमारा मन आंशिक मात्रा में विक्षिप्त रहता है और इसकी वृत्तियाँ बहुश: हमारे अज्ञान को प्रदर्शित करती रहती हैं।
यहाँ श्री गौड़पाद इस तथ्य को स्पष्ट कर रहे हैं कि इन मानसिक विक्षेपों के बने रहने के कारण मनुष्य अपने वास्तविक स्वरूप को अनुभव करने में असमर्थ रहता है । इस प्रकार विक्षिप्त रहने वाला मन हमारे जीवन को कष्टमय बना देता है जिस कारण शान्ति, स्थिरता, सुख और परिपूर्णता, जो हमारे वास्तविक स्वरूप के गुण हैं, परोक्ष रह कर दुःख को प्रत्यक्ष रूप से अनुभव कराते रहते हैं । इसलिए पूरे ध्यान से उपदेश ग्रहण करने और कई वर्ष पर्यन्त तप एवं साधना में व्यस्त रहने पर भी अनेक साधक सुगमता से आत्म-स्वरूप की अनुभूति नहीं कर पाते। इसका एकमात्र कारण यह है कि वे अपने मन को पूर्णतः शान्त नहीं कर पाते। इस बात को बताने का यह अभिप्राय है कि श्री गौड़पाद आग्रह पूर्वक उनके निर्देशों का पूर्ण रूप से पालन करने का हमें सन्देश देते हैं। ऋषि कहते हैं कि मन को वश में लाकर साधक उस शान्ति पूर्ण धाम तक उड़ान भर सकता है जहाँ स्वप्न तथा सुषुप्त अवस्था की चेतना का प्रवेश नहीं हो पाता ।
श्रस्ति नास्त्यस्ति नास्तीति नास्ति नास्तीति वा पुनः । चलस्थिरोऽभयाभावैरा वृष्णोत्येव बालिशः ॥ ८३ ॥
छिपाये रहते हैं ।
कम समझ व्यक्ति 'सत्य' को कई तरह से कभी वे कहते हैं कि यह (तत्व) है और कभी मानने से इन्कार कर देते हैं। इसे कभी तो वे जंगम मानते हैं,
वे
इसकी सत्ता को
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