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( ३१७ )
आवश्यकता नहीं है । क्या सूर्य को देखने के लिए कभी हमने किसी रोशनी का उपयोग किया है ? यदि हमें कुछ करना है तो यह है कि सूर्य और हमारे बीच रहने वाले पर्दे को हटा दिया जाय । जब यह मेघ दूर हो जायेगा तब ज्योति पुञ्ज भगवान् काश्यपेय स्वतः प्रकट हो जायेंगे । ऐसे ही ग्रात्मा परिपूर्ण ज्ञान है । इसलिए इसे जानने के लिए किसी दूसरे ज्ञान की प्रावश्यकता नहीं होती । वेदान्त-विहित सभी साधन हमारे तथा हृदयंगम म्रात्मा के मध्यवर्ती आवरणों को दूर करने के लिए ही उपयोग में लाये जाते हैं ।
इस प्रकार आत्मानुभूति का अभिप्राय हमारे भीतर आत्मा का निरावरण करना है । आत्मा को अनुभव करने के लिए आत्म-तत्व की सहायता अपेक्षित है ।
सुखमाव्रियते नित्यं दुःखं निव्रीयते सदा ।
यस्य कस्य च धर्मस्य ग्रहेण भगवानसौ ॥ ८२ ॥
मन के विविध पदार्थों में आसक्त रहने के कारण आत्मा का सहज- गुण 'परोक्ष' रहता है और दुःख 'प्रत्यक्ष' होता रहता है । अतः प्रकाशमान् भगवान के दर्शन दुष्कर हो जाते हैं ।
इस मंत्र पर भाष्य करते हुए श्री शंकराचार्य प्रारम्भ में ही एक उपयुक्त प्रश्न करते हैं और इस पर विचार करने के बाद कहते हैं कि उनके प्रश्न का उत्तर श्री गौड़पाद के उपरोक्त मंत्र में मिलता है । भगवान् का प्रश्न यह है - " क्या कारण है कि बार बार समझाने पर भी सर्व साधारण परमात्म-तत्व को हम मनुभव नहीं कर पाते ? " टीकाकार ने इसका कारण हमारे मन का विविध विषय-पदार्थों में उलझा रहना बताया है ।
मन में विचार-तरंगों का उठते रहना मन की क्रियाशीलता हैं । जानतावस्था में हमारा मन विविध पदार्थों को प्रति-क्षण देखता रहता है । गहरी निद्रा में हमें न तो बाह्य संसार की अनुभूति होती है और न ही हम अपने अन्तर्जगत को अनुभव कर पाते हैं बल्कि ( उस समय ) हमें ऐसी वृत्ति का भास होता रहता है जिसके द्वारा हमारा अज्ञान व्यक्त होता है । सुषुप्तावस्था
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